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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 233
आदि की अपेक्षा भिन्न होकर भी चूंकि द्रव्य से पृथक् गुण और पर्यायों की सत्ता नहीं पाई जाती या प्रयत्न करने पर भी हम द्रव्य से गुण पर्यायों का विवेचन-पृथक्करण नहीं कर सकते, अतः वे अभिन्न सत् सामान्य की दृष्टि से समस्त द्रव्यों को एक कहा जा सकता है और अपने-अपने व्यक्तित्व की दृष्टि से पृथक् अर्थात् अनेक। इस प्रकार समग्र विश्व अनेकात्मक होते हुए भी व्यवहारार्थ संग्रहनय की दृष्टि से एक कहा जाता है। एक द्रव्य अपने गुण और पर्यायों की दृष्टि से अनेकात्मक है। एक ही आत्मा हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, ज्ञान आदि अनेक रूपों से अनुभव में आता है। द्रव्य का लक्षण अन्वयरूप है, जबकि पर्याय व्यतिरेकरूप होती है। द्रव्य की संख्या एक है
और पर्यायों की अनेक । द्रव्य का प्रयोजन अन्वय ज्ञान है और पर्याय का प्रयोजन है, व्यतिरेक ज्ञान। पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती है और द्रव्य अनादि अनन्त है। इस प्रकार एक होकर भी द्रव्य अनेक रूपों में प्रतीतिसिद्ध है, तब उसमें विरोध, संशय आदि दूषणों को अवकाश नहीं है। उस प्रकार द्रव्यार्थिक नय से पदार्थ का एकत्व सिद्ध है और पर्यायार्थिक नय से पदार्थ अनेक रूप भी है।
5. सामान्य-विशेष : सामान्य और विशेष पदार्थ के धर्म हैं। धर्म धर्मी को छोड़कर नहीं रहते और धर्मी धर्मों के बिना नहीं रहता। जैन दर्शन इस संबंध में भी स्याद्वाद दृष्टि के अनुरूप ही पदार्थ को सामान्य-विशेषात्मक मानता है। जब हम 'गो' शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उससे गोत्व सामान्य का बोध होता है साथ ही काली-पीली आदि विशेष धर्मयुक्त गौओं का भी बोध होता है। सामान्य और विशेष पदार्थ में तादात्म्य रूप से विद्यमान रहते हैं। ये पदार्थ के गुण हैं, परस्पर सापेक्ष हैं, अर्थात् सामान्य को छोड़कर विशेष तथा विशेष को छोड़कर सामान्य कहीं नहीं पाया जाता है। ये दोनों ही पृथक् पृथक् आकाशकुसुम की तरह असत् है।
बौद्ध दर्शन विशेष को ही स्वीकार करता है। वह सामान्य तत्व का सर्वथा अपलाप करता है। वह कहता है, कि विशेष ही कार्यकारी होता है, विशेष ही पदार्थ का स्वरुप है। गौ की अलग-अलग पर्यायों के अतिरिक्त गौत्व सामान्य अलग कोई वस्तु नहीं हैं। गोत्व दूध नहीं देता या भार वहन नहीं करता। अर्थ क्रियाकारित्व विशेष धर्म में ही पाया जाता है, अतएव वही वास्तविक है।
सामान्यवादी वेदान्त और सांख्य विशेष का तिरस्कार करते हुए सामान्य को ही तात्विक मानते हैं। उनका मन्तव्य है, कि जगत में दृष्टिगोचर होने वाले विविध पदार्थों में एक ही तत्व रहा हुआ है। जैसे बर्तनों की विविध आकृतियों में मिट्टी तत्व एक ही है। जैसे बुलबुला, तरंग, हिमकण, ओस आदि जल की अलग-अलग पर्यायें होते हुए भी उसमें जल तत्व एक ही है। जगत् में प्रतीत होने वाले घट-पटादि पदार्थ सब एक ही परब्रह्म की पर्याय हैं- ब्रह्म ही परमतत्व है, अन्य कुछ भी नहीं है। यह अद्वैत वादियों का मत है। सांख्य दर्शन विश्व को प्रकृति रुप मानकर सामान्य तत्व को ही