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254 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
_ 'सम्यग्ज्ञानात्मकं तत्र प्रमाणमुपवर्णितम्।" तत्वार्थसार में आचार्य अमृत चन्द्र ने प्रमाण और नयों में प्रमाण को सम्यग्ज्ञानरुप कहा है अर्थात् समीचीन ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। जो वस्तु जैसी है, उसको वैसे ही जानना प्रमाण है।
प्रमाण के सामान्य लक्षण में किसी की आपत्ति नहीं है। विवाद का विषय करण बनता है। न्याय दर्शन ने अर्थ की उपलब्धि के साधन को प्रमाण माना है। दूसरे शब्दों में प्रमाण (ज्ञान) के साधकतम करण को प्रमाण कहा है।
___ 'प्रमायाः करणं प्रमाणं"" अर्थात् प्रमा का करण ही प्रमाण है। करण का अर्थ है, साधकतम। एक अर्थ की सिद्धि में अनेक सहयोगी होते है, किंतु वे सब करण नहीं कहलाते। फल की सिद्धि में जिसका व्यापार-अध्यवसाय होता है। वह करण कहलाता है। कलम बनाने में हाथ और चाकू दोनों चलते हैं, किंतु करण चाकू ही होगा। कलम काटने का निकटतम सम्बन्ध चाकू से है, हाथ से उसके बाद। इसलिए हाथ साधक और चाकू साधकतम कहलाएगा। यह दर्शन इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध रुप सन्निकर्ष को ज्ञान में साधकतम मानता है और उसे प्रमाण बताता है। वैशेषिक दर्शन भी सन्निकर्ष को प्रमाण मानता है। लेकिन जैन दर्शन ने स्पष्ट रुप से सन्निकर्ष की प्रमाणता का खण्डन किया है।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान एक चेतन क्रिया है, अतः उसका साधकतम करण भी ज्ञान ही हो सकता है। सन्निकर्ष प्रमाण का साधकतम करण नहीं हो सकता, क्योंकि वह अचेतन है। जो अचेतन होता है, वह ज्ञान का साधकतम करण नहीं हो सकता, जैसे घटादि जड़ पदार्थ। सन्निकर्ष जड़ है अतएव वह साधकतम करण और प्रमाण नहीं हो सकता। सन्निकर्ष ज्ञान में सहकारी करण हो सकता है, साधकतम करण नहीं।"
इसी प्रकार बौद्ध सारुप्य और योग्यता को करण मानते हैं। बौद्ध दर्शन ने निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण माना है। निर्विकल्पक ज्ञान वह है. जिसमें पदार्थ की सत्ता मात्र का बोध होता है, उसके नाम, जाति आदि विशेष का ज्ञान नहीं होता। जैन दर्शन इस निर्विकल्पक ज्ञान की प्रमाणता को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार जो ज्ञान व्यवसायात्मक अर्थात् निश्चयात्मक होता है, वही प्रमाण है। सत्ता मात्र को ग्रहण करने वाला निर्विकल्पक ज्ञान और अवग्रह से पूर्व होने वाला दर्शन (अव्यक्त बोध) प्रमाण नहीं है, क्योंकि उनसे पदार्थ के स्वरुप का निश्चय नहीं होता है।
ज्ञान मात्र प्रमाण नहीं है, अपितु जो ज्ञान व्यवसायात्मक होता है, वही प्रमाण की कोटि में आता है। यदि ज्ञान मात्र को प्रमाण माना जाये तो विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय को भी प्रमाण कहना होगा, क्योंकि ज्ञान तो इनमें भी है, चाहे वह अनिर्णित, विपरीत व संकित हो। विपरीत ज्ञान की प्रमाणता के निषेध के लिए ही ज्ञान