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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 257
भाव और उपेक्षणीय पदार्थों पर उपेक्षा करने का भाव होना प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि प्रमाणों का परम्परा फल है।' प्रमाण तभी सफल होता है, जब उसके द्वारा उक्त प्रयोजन सिद्ध होते हों। यह तभी संभव हो सकता है, जब प्रमाण को ज्ञानरूप स्वीकार किया जाय। इसलिए जैन दर्शन ने सम्यग्ज्ञान, यथार्थ ज्ञान को प्रमाण का लक्षण माना
जब ज्ञान ही प्रमाण है और प्रमाण ज्ञानरूप है, तो ज्ञान और प्रमाण में क्या अन्तर है? समाधान यह है, कि ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्त है। दोनों में व्याप्तव्यापक भाव सम्बन्ध है। ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यग्ज्ञान यथार्थ ज्ञान है और संशय विपर्ययादि अयथार्थ ज्ञान है। प्रमाण तो यथार्थ ज्ञान रूप ही होता है। अतएव समस्त जैनाचार्यों ने प्रमाण के लक्षण में यथार्थ ज्ञानसम्यग्ज्ञान की अनिवार्यता प्रतिपादित की है।
ज्ञान मीमांसा का प्रमाण मीमांसा से स्वातंत्र्य : जैन आगमों में ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत पंच ज्ञान का विवेचन किया गया है। आगमों में ज्ञान चर्चा के साथ अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाण चर्चा का कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है। इन ज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा जैनागमिकों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है, जो दूसरों ने प्रमाण और अप्रमाण के विभाग के द्वारा सिद्ध किया है। अर्थात् आगमिकों ने प्रमाण या अप्रमाण ऐसे विशेषण दिए बिना ही प्रथम के तीनों ज्ञानों में अज्ञान-विपर्यय-मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व दोनों ही संभावना मानी है और अन्तिम दो में एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है। इस प्रकार ज्ञानों को प्रमाण या अप्रमाण न कह करके भी उन विशेषणों का प्रयोजन तो निष्पन्न कर ही दिया है।
जैन दार्शनिक अन्य दर्शनों में प्रचलित प्रमाण-अप्रमाण चर्चा से अनभिज्ञ नहीं थे। किन्तु वे उस चर्चा को अपनी मौलिक और स्वतन्त्र ज्ञान चर्चा से पृथक् ही रखते थे। जब आगमों में ज्ञान का वर्णन आता है, तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानों का क्या सम्बन्ध है, उसे बताने का प्रयास नहीं किया है। इसी प्रकार प्रमाण मीमांसा में किसी प्रमाण को ज्ञान कहते हुए भी आगम विवेचित पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय उसमें किस प्रकार है, यह भी नहीं बताया है, इससे फलित यही होता है, कि आगम वेत्ताओं ने ज्ञान मीमांसा एवं प्रमाण मीमांसा का समन्वय करने का प्रयास नहीं किया- दोनों को पृथक्-पृथक् ही रखा है।
ज्ञान मीमांसा के विकास की भूमिकाएँ : जैन परम्परा में पंच ज्ञान चर्चा भगवान महावीर से पूर्व भी होती थी। इसका प्रमाण राज प्रश्नीय सूत्र में है। भगवान महावीर ने अपने मुख से अतीत में होने वाले केशीकुमार श्रमण का वृत्तान्त राज प्रश्नीय में कहा है। शास्त्रकार ने केशीकुमार श्रमण के मुख से निम्न वाक्य कहलाया है:
"एवं खुपएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते-तंजहा आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे।"25