________________
ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 259
सूत्रकार ने आगे का वर्णन राजप्रश्नीय से पूर्ण करने की सूचना दी है और राजप्रश्नीय" को देखने से ज्ञात होता है, कि उसमें पूर्वोवत करके शेष की पूर्ति नन्दी सूत्र से कर लेने की सूचना दी है।
सार यही है, कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होते हुए भी अन्तर यह है, कि इस भूमिका में नन्दीसूत्र के प्रारंभ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों का जिक्र तक नहीं है। दूसरी बात यह है, कि नन्दी की तरह इसमें आभिनिबोध ज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुत निःसृत ऐसे दो भेदों को भी स्थान नहीं है। इससे यही कहा जा सकता है, कि यह वर्णन प्राचीन भूमिका का है।
2. द्वितीय भूमिका का विवेचन स्थानांग गत ज्ञान चर्चा में मिलता है । उसमें ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके उन्हीं दो में पंच ज्ञानों की योजना की गई है।” यह प्राथमिक भूमिका का विकास है, जो इस सारीणी में स्पष्ट रूप से परिलक्षित है
-
केवल
अवधि +
प्रत्यक्ष +
ज्ञान +
नोकेवल
मनःपर्याय
F
भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिक ऋजुमति विपुलमति अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह
आवश्यक व्यतिरिक्त
परोक्ष
अभि निबोधिक
7
F
श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःसृत अंग प्रविष्ट अंगबाह्य
आवश्यक V कालिक
श्रुतज्ञान +
उत्कालिक
उपर्युक्त आधार पर ही उमास्वाति ने भी प्रमाणों को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त करके उन्हीं दो में पाँच ज्ञानों का समावेश किया है। .
1
पश्चातवर्ती जैन तार्किकों ने प्रत्यक्ष के दो भेद बताए हैं। विकल और सकल।" केवल का अर्थ तो है - सर्वसकल और नोकेवल का अर्थ होता है, असर्वविकल। अतएव तार्किकों के उक्त वर्गीकरण को मूल स्थानांग, जितना तो पुराना मानना ही चाहिये ।
यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है । स्थानांग में श्रुत निःसृत के भेदरूप से व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ये दो बताए हैं । वस्तुतः वहाँ इस प्रकार कहना चाहिये
था