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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 261
वाङ्मय में मति के ऐसे दो भेद करने की प्रथा नहीं है। आवश्यक नियुक्ति के ज्ञान वर्णन में भी मति के उन दोनों भेदों को स्थान नहीं दिया गया है।
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में भी उन दोनों भेदों का उल्लेख नहीं किया है। यद्यपि स्वयं नन्दीकार ने नन्दी में मति के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ये दो भेद तो किए हैं, तथापि मतिज्ञान को पुरानी परम्परा के अनुसार अठाईस भेद वाला ही कहा है। उससे यही सूचित होता है, कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों का मति में समाविष्ट करने के लिए ही उन्होंने मति के दो भेद तो किए, लेकिन प्राचीन परम्परा में मति में उनका स्थान न होने से नन्दीकार ने उसे अठाईस भेद भिन्न कहा है। अन्यथा उन चार बुद्धियों को मिलाने से तो वह बत्तीस भेद भिन्न हो जाता है।
3. तृतीय भूमिका नन्दीसूत्रगत ज्ञानचर्चा में व्यक्त होती है वह इस प्रकार है -
"ज्ञान पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- 1. आभिनिबोधिकज्ञानं, 2. श्रुतज्ञानं, 3. अवधिज्ञानं, 4. मनःपर्यवज्ञानं, 5. केवलज्ञान ।। सू. 1॥"
"तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा- पंच्चक्खं च परोक्खं च।” सू. 2
ज्ञान
आभिनिबोधिक
श्रुत
अवधि
मन:पर्याय
केवलज्ञान
प्रत्यक्ष
___परोक्ष
इन्द्रिय प्रत्यक्ष
नौइन्द्रिय प्रत्यक्ष
अभिनिबोधक
श्रुत
श्रुत निःसृत
अश्रुत निःसृत
1. श्रोतेन्द्रिय प्र. 1. अवधि 2. चक्षुरिन्द्रिय प्र. 2. मनःपर्याय 3. घाणेन्द्रिय प्र. 3. केवलज्ञान 4. जिह्वेन्द्रिय प्र. 5. स्पर्शन्द्रिय प्र. अवग्रह ईहा
1. औत्पत्तिकी 2. वैनयिकी 3. कर्मजा 4. पारिणामिकी
अवाय
धारणा
व्यंजनावग्रह
अर्थावग्रह
उपर्युक्त सारीणी को देखने से ज्ञात होता है, कि इसमें सर्वप्रथम ज्ञान को पाँच भागों में विभक्त किया गया है। संक्षेप में उन्हीं पाँच को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों में विभक्त किया गया है। स्थानांग सूत्र में विशेषता यह है, कि इसमें इन्द्रिय जन्य मतिज्ञानों का स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में है। जैनेतर सभी दर्शनों में