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264 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
स्वसम्मत ज्ञानों की तरह प्रमाणों को भी ज्ञप्ति में स्वतंत्र साधन मानते थे।
स्थानांग सूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान पर हेतु शब्द का प्रयोग भी मिलता है। ज्ञप्ति के साधन भूत होने से प्रत्यक्षादि को हेतु शब्द से व्यवहत करने में औचित्यभंग भी नहीं है। जैसे -
___ "अहवा हे ऊ चउविहे पण्णते,
तंजहा पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे।138 चरक संहिता में भी प्रमाणों का निर्देश हेतु शब्द से हुआ है -
“अथ हेतुः - हेतु र्नाम उपलब्धिकारणं तत् प्रत्यक्षमनुमान मैत्तिह्यमौपम्यमिति। एभिहैतुभिर्यदुपलभ्यते तत् तत्वमिति ॥""" उपाय हृदय में भी चार प्रमाणों को हेतु कहा गया है।
स्थानांग में ऐतिह्य के स्थान में आगम किन्तु चरक संहिता में ऐतिह्य को आगम ही कहा है। अतएव दोनों में कोई अन्तर नहीं
"ऐतिचं नामाप्तोपदेशो वेदादिः140 अन्यत्र जैन निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के चार भेद भी दिखाए गए हैं। "चउविहे पमाणे पन्नत्ते तंजहा-दव्वप्पमाणे खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे,
भावप्पमाणे।1 उपर्युक्त सूत्र में प्रमाण शब्द का अति विस्तृत अर्थ लेकर ही उस के चार भेदों का परिगणन किया गया है। स्पष्ट है, कि इसमें दूसरे दार्शनिकों की तरह केवल प्रमेय साधक तीन, चार या छह आदि प्रमाणों का समोवश नहीं है, अपितु व्याकरण कोषादि से सिद्ध प्रमाण शब्द के यावत् अर्थों का समावेश करने का प्रयत्न किया गया है।
सांख्यादि सम्मत तीन प्रमाण मानने की परम्परा का भी प्रचलन जैन दर्शन में पाया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में तीन प्रकार के व्यवसाय का उल्लेख इसी बात को व्यक्त करता है
“तिविहे ववसाए पण्णत्ते तंजहा-पच्चक्खे पच्चतिते अणमामिए॥143
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए अभयदेव ने लिखा है, कि - "व्यवसायो निश्चयः सच प्रत्यक्षः-अवधिमन:-पर्ययकेवलाख्यः, प्रत्ययात् इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणात् निमित्ताजातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अग्न्या दिकम्
अनुगच्छति-साध्याभावे न भवति यो धूमादि हेतुः सोऽनुगामी ततो जातम् अनुगामिकम्-अनुमानम् तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक एवेति। अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिक:-आप्तवचन प्रभवः, तृतीयस्तथैवेति।
स्पष्ट है, कि उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या में अभयदेव ने विकल्प किए हैं। अर्थात् उनको एकतर अर्थ का निश्चय नहीं था। वस्तुतः प्रत्यक्ष शब्द से सांव्यावहारिक और पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्ष, प्रत्ययित शब्द से अनुमान और आनुगामिक शब्द से आगम,