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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 267 अनुमान
पूर्ववत्
शेषवत्
दृष्टसाधर्म्यवत्
कार्येण कारणेन गुणेन अवयवेन आश्रयेण
सामान्यदृष्ट विशेष दृष्ट
अतीतकाल ग्रहण प्रत्युत्पन्नकाल ग्रहण
अनागतकाल ग्रहण
औपम्य
साधPपनीत
वैधोपनीत
वैधोपनीत
किञ्चित्साधोपनीत प्रायःसाधोपनीत
सर्वसाधोपनीत
किञ्चित्वैधर्म्य
प्राय:वैद्यर्म्य
सर्ववैद्यर्म्य
आगम
लौकिक
लोकोत्तर
वेद
रामायण
महाभारत
आचारांग आदि 12 अंग
उपर्युक्त सारीणियों के अन्तर्गत जैन आगम सम्मत प्रमाण एवं प्रमाण के समस्त प्रकार एवं प्रकारान्तर भेदों का संपूर्ण विवेचन हो जाता है। अनुयोग द्वार में प्रारंभ में ही ज्ञान के पाँच भेद बताए हैं -
1. आभिनिबोधिक, 2. श्रुत, 3. अवधि, 4. मनःपर्यय व 5. केवलज्ञान । प्रमाण के विवेचन के प्रसंग में प्राप्त तो यह था, कि अनुयोगद्वार के संकलनकर्ता उन्हीं पाँच ज्ञानों को ज्ञान प्रमाण के भेदरूप से बता देते। लेकिन ऐसा न करके उन्होंने नैयायिक सम्मत चार प्रमाणों को ही ज्ञान प्रमाण के भेद रूप से बता दिया है। ऐसा करके उन्होंने यह सूचित किया है, कि दूसरे दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों को मानते हैं, वस्तुतः वे ज्ञानात्मक हैं और आत्मा के गुण हैं।
इस समन्वय से यह भी फलित हो जाता है, कि अज्ञानात्मक सन्निकर्ष इन्द्रिय आदि पदार्थ प्रमाण नहीं हो सकते। अतएव हम देखते हैं, कि सिद्धसेन से लेकर