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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 235 सप्त भंगीनय : अनन्त धर्मात्मक वस्तु को सम्यक् भाषा में स्याद्वाद के द्वारा ही प्रतिपादित किया जा सकता है। स्याद्वाद का प्रयोजन यह प्रतिपादित करना है, कि प्रत्येक धर्म अपने विरोधी धर्म के साथ वस्तु में रहता है। सत्-असत् और एक-अनेक परस्पर अविनाभावी है, यह स्थापित करने के लिए प्रमाणाविरोधी विधि-प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगीनय है। एक प्रकार से स्याद्वाद का प्रायोगिक स्वरूप ही सप्तभंगीनय है। प्रसिद्ध तार्किक वादिदेव सूरि ने सप्त भंगीनय की परिभाषा इस प्रकार की है
"एकत्र वस्तुन्येकैक धर्म पयेनुयोगवशाद विरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च। विधिनिषेधयोः कल्पना स्यात्कारांकित: सप्तधावाक्य प्रयोगः सप्तभङ्गी॥''
__ अर्थात् एक ही वस्तु में किसी एक नियत धर्म-सम्बन्धी प्रश्न को लेकर अविरुद्ध रुप से अलग या सम्मिलित विधि-निषेध की कल्पना द्वारा ‘स्यात्' पद से युक्त सात प्रकार का वचन प्रयोग ‘सप्तभंगी' है।
इस भारतभूमि में विश्व के सम्बन्ध से सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार पक्ष वैदिककाल से विचार कोटि में रहे हैं । “सदैव सोम्येदमग्र आसीत, असदेवेदमग्र आसीत।" आदि वाक्य जगत के सम्बन्ध में सत् और असत् रुप से परस्पर विरोधी दो कल्पनाओं को स्पष्ट उपस्थित कर रहे हैं। तो वहीं सत् और असत् इस उभयरुपता का तथा इन अव्यक्तवाद और संजय के अज्ञानवाद में इन्ही चार पक्षों के दर्शन होते हैं। उस समय का वातावरण ही ऐसा था, कि प्रत्येक वस्तु का स्वरुप सत्, असत्, उभय
और अनुभय इन चार कोटियों से विचारा जाता था। जैन तत्वदृष्टाओं ने वस्तु के विराट रुप को देखा और बताया, कि वस्तु के अनन्त धर्ममय स्वरुपसागर में ये चार कोटियाँ तो क्या, ऐसी अनन्त कोटियाँ लहरा रही हैं।
अपुनरुक्त भंग सात हैं : जैन दर्शन के द्वारा अपने स्याद्वाद सिद्धान्त को प्रायोगिक वचन-शैली सप्त भंगीनय के रूप में प्रतिपादित किया गया है। यहाँ अनेक विद्वानों को आपत्ति होती है, कि भंग सात ही क्यों होते हैं? इस प्रश्न का एक समाधान तो यह, कि तीन वस्तुओं के गणित के नियम के अनुसार अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं। दूसरा समाधान है, कि प्रश्न सात प्रकार के होते हैं। प्रश्न सात प्रकार के क्यों हाते हैं? इसका उत्तर है, कि जिज्ञासा सात प्रकार की होती है। जिज्ञासा सात प्रकार की क्यों होती है? इसका उत्तर है, कि संशय सात प्रकार के ही होते हैं। संशय सात प्रकार के क्यों होते हैं? इसका जवाब है, कि वस्तु के धर्म ही सात प्रकार के हैं। तात्पर्य यह है, कि सप्त भंगीनय में मनुष्य-स्वभाव की तर्क मूलक प्रवृत्ति का गहराई से अन्वेषण करके वैज्ञानिक आधार से यह निश्चय किया गया है, कि आज जो ‘सत्, असत्, उभय और अनुभय' अदि चार कोटियाँ तत्त्व विचार के क्षेत्र में प्रचलित हैं, उनका अधिक से अधिक विकास सात रूप में ही सम्भव हो सकता है। सत्य तो