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244 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन को इधर-उधर नहीं जाने देता है। यह अविवक्षित धर्मों का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व भिन्न दार्शनिकों का संपोषक है।'
जिन दार्शनिकों की भाषा स्याद्वाद अनुगत है, उन्हें कोई भी दर्शन भ्रमजाल के चक्र में नहीं फँसा सकता है।
विरोध का निराकरण : शंकराचार्य ने अपने शांकरभाष्य में स्याद्वाद के निरसन का प्रयत्न करते हुए यह भी कहा है -शीत और उष्ण की तरह एक धर्मी में परस्पर विरोधी सत्व और असत्व आदि धर्मों का एक साथ समावेश नहीं हो सकता। किन्तु स्याद्वाद के स्वरूप को जिसने समझ लिया है, उसके समक्ष यह आरोप हास्यास्पद ही ठहरता है। आचार्य से यदि प्रश्न किया गया होता – 'आप कौन है?' तो वे उत्तर देते – 'मैं संन्यासी हूँ' पुनः प्रश्न किया जाता – 'आप गृहस्थ हैं या नहीं?' तो वे कहते 'मैं गृहस्थ नहीं हूँ।' अब तीसरा प्रश्न उनसे यह किया जाता - आप 'हूँ' भी और नहीं हूँ भी कहते हैं, इस परस्पर विरोधी कथन का आधार क्या है? तब आचार्य को अनन्यगत्वा यही कहना पड़ता- संन्यासाश्रम की अपेक्षा हूँ, गृहस्थाश्रम की अपेक्षा नहीं हूँ, इस प्रकार अपेक्षाभेद के कारण मेरे उत्तरों में विरोध नहीं है।
बस, यही उत्तर स्याद्वाद है। सत्व और असत्व धर्म यदि एक ही अपेक्षा से स्वीकार किए जाएँ, तो परस्पर विरोधी होते हैं, किन्तु स्वरूप से सत्व और पररूप से असत्व स्वीकार करने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है, जैसे-मैं संन्यासी हूँ और संन्यासी नहीं हूँ, यह कहना विरुद्ध है, किन्तु मैं संन्यासी हूँ, गृहस्थ नहीं हूँ, ऐसा कहने में कोई विरोध नहीं है।
संदर्भ सूची : 1. उत्तराध्ययन सूत्र - सुधर्मास्वामी, 20/37 2. अशोक के फूल - भारत वर्ष की सांस्कृतिक समस्या, पृष्ठ 67 3. वही, पृष्ठ 6
दीर्घ निकाय विभाग, पृष्ठ 426 __ यथा धेनु सह श्रेषु वत्सो याति स्व मातरं। तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तार मनुगच्छति ॥ महाभारत, शान्तिपर्व 181, 16 कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेसु कदाचन।
मा कर्म फल हेतुर्भुर्मा, ते संगोऽस्त्व कर्मणि॥गीता, 2/47 7. आत्म प्रवृत्याकृष्टा स्तत् प्रयोग्य पुद्गलाः कर्म । जैन सिद्धान्त दीपिका, 4/1 8. उवमाण विजए, अंग सुत्ताणि 1, पृष्ठ 48 9. सत्वे सराणियट्टति, अंग सुत्ताणि 1, पृष्ठ 48 10. अरुवी सत्ता, अंग सुत्ताणि 1, पृष्ठ 48 77. अणेग रुवाओ जोणीओ सन्धेइ, आयारो, पृष्ठ 6