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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 225
प्रकार हो सकती है
__ 1. प्राग्भाव : कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व 'असत्' होता है। वह अपने योग्य कारणों से उत्पन्न होता है। कार्य का उत्पत्ति के पहले न होना ही प्राग्भाव कहलाता है। यह अभाव भावान्तर रुप पर्याय से पर्यायान्तर रुप होता है। यह तो निश्चित ही है, किसी प्रकार द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है। द्रव्य तो अनादि, अनन्त है। उनकी संख्या न कम होती है और न अधिक। उत्पाद द्रव्य का न होकर पर्याय का होता है। द्रव्य अपने द्रव्य रुप से कारण होता है और पर्याय रुप से कार्य। जो पर्याय उत्पन्न होने जा रहा है, वह उत्पत्ति के पहले पर्याय रूप में तो नहीं है, अतः उसका जो यह अभाव है वही प्राग्भाव है। यह प्राग्भाव पूर्ण पर्याय रूप में होता है, अतः घड़ा पर्याय जब तक उत्पन्न नहीं हुआ, तब तक वह असत् है, और जिस मिट्टी द्रव्य से वह उत्पन्न होने वाली है, उस द्रव्य की घट से पहले की पर्याय घट का प्राग्भाव कही जाती है। यानि वही पर्याय नष्ट होकर घट बनती है। अतः वह पर्याय घट का प्राग्भाव है। इस प्रकार पूर्व पर्याय ही उत्तर पर्याय का प्राग्भाव है। सन्तान परम्परा से यह प्राग्भाव अनादि भी कहा जा सकता है। जैसे पूर्व पर्याय का प्राग्भाव तत्पूर्व पर्याय है तथा तत्पूर्व पर्याय का प्राग्भाव उससे भी पूर्व की पर्याय होगा। इस प्रकार संततिक्रम की दृष्टि से यह अनादि होता है।
प्राग्भाव कार्य-पर्याय का माना जाता है। यदि कार्य पर्याय का प्राग्भाव न माना जाये तो कार्य पर्याय (वर्तमान पर्याय) मानना अनादि हो जाएगा और द्रव्य में त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों का एक काल में प्रकट सद्भाव मानना होगा, जो सर्वथा अनुभव-विरुद्ध है।
2. प्रध्वंसाभाव : द्रव्य का विनाश नहीं होता है, वरन् पर्याय का होता है। अतः कारण पर्याय का नाश कार्य पर्यायरुप में होता है। कारण नष्ट होकर कार्य बनता है। कोई भी विनाश सर्वथा भाव रुप न होकर उत्तर पर्याय रूप होता है। जैसे घट पर्याय नष्ट होकर कपाल-पर्याय रुप बनती है, अतः घट का विनाश कपाल रुप ही फलित होता है। इसका अर्थ यह हुआ, कि पूर्व पर्याय का विनाश उत्तर पर्याय की उत्पत्ति रूप होता है। यदि प्रध्वंसाभाव न माना जाए तो सभी पर्यायें अनन्त हो जाएगी, यानी वर्तमान क्षण में अनादि काल से अब तक हुई सभी पर्यायों का सद्भाव अनुभव में आना चाहिए, जो कि असंभव है। वर्तमान में तो एक ही पर्याय अनुभव में आती है। ___ यह शंका भी निर्मूल है, कि 'घट' का विनाश यदि कपाल रुप है, तो कपाल का विनाश होने पर यानी घड़े के विनाश का नाश होने पर फिर से घड़े की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। क्योंकि विनाश का विनाश तो सद्भाव रुप होता है। इसका हेतु यह है, कि कारण का उपमर्दन करके तो कार्य उत्पन्न होता है, परन्तु कार्य का उपमर्दन होने पर उपादेय की उत्पत्ति ही सर्वजन सिद्ध है।