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228 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्त्ववान है और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है।" जैसे घट स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से सत् है, अस्तित्ववान है, किन्तु वह उसमें पट रूप परद्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से असत् है अर्थात् उसमें पट का नास्तिरूप धर्म है। यदि ऐसा न माना जाए तो एक ही वस्तु विश्वरूप हो जाएगी। जिस वस्तु में जिस धर्म का अभाव नहीं होता वह वस्तु तद्प होती है। यदि घट में पट का अभाव न माना जाए तो घट पट रूप हो जाएगा। यदि स्वरूप चतुष्टय की भाँति पररूप चतुष्टय से भी सत मान लिया जाए तो स्व पर में भेद न रहकर सबको सर्वात्मकता प्राप्त हो जाएगी। इसी प्रकार यदि पर रूप के समान स्वरूप से भी वह असत् हो तो अभावात्मकता का प्रसंग प्राप्त होता है। अतः प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व सहज ही घटित होते है।
जो लोग अस्तित्व और नास्तित्व को विरोधी धर्म मानकर एक ही वस्तु में दोनों का समन्वय असंभव मानते हैं, वे यह भूल जाते हैं, कि एक ही अपेक्षा से अस्तित्व
और नास्तित्व का विधान किया जाए, तभी उनमें विरोध होता है। विभिन्न अपेक्षाओं से विधान करने में कोई विरोध नहीं होता। किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह कहना, कि यह भारतीय है,पाश्चात्य नहीं है, विद्वान है, मूर्ख नहीं है। यह अस्ति-नास्ति सूचक होते हुए भी परस्पर विरुद्ध नहीं है। यह विधान न केवल तर्क संगत है, अपितु व्यवहार संगत भी है। हम प्रतिदिन इसी प्रकार का व्यवहार करते हैं। इसके बिना किसी वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। यह पुस्तक है' ऐसा निश्चय तो तभी संभव है जब हम यह जान लें, कि यह पुस्तक के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अतः लोक व्यवस्था के लिए प्रत्येक पदार्थ को स्वरूप से सत् और पररूप से असत् मानना ही उचित है। संसार का कोई भी पदार्थ इस सद्सदात्मक नियम का अपवाद नहीं हो सकता।
2. नित्यानित्यता : अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है। द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं। पर्यायों के अभाव में द्रव्य का और द्रव्य के अभाव में पर्याय का कोई अस्तीत्व संभव नहीं है। चूंकि द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य अथवा परिवर्तनशील होती है। अतः प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है। यहाँ द्रव्य और पर्याय पृथक्-पृथक् दो वस्तुएँ नहीं है। उनमें वस्तुगत कोई भेद नहीं है, केवल विवक्षा भेद है। अनेकान्त दर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है अर्थात् पर्याय से उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ भी द्रव्य से ध्रुव है। कोई भी वस्तु इसका अपवाद नहीं है।
___ द्रव्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में परिणामवाद, आरम्भवाद और समूहवाद आदि अनेक विचार हैं। उसके विनाश के सम्बन्ध में भी रूपान्तरवाद, विच्छेदवाद आदि अनेक अभिमत हैं। सांख्य दर्शन परिणामवादी है, वह कार्य को अपने कारण में सत्