________________
226 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
प्राग्भाव व प्रध्वंसाभाव में अंतर : प्राग्भाव और प्रध्वंसाभाव में उपादानउपादेय भाव है। अर्थात् प्राग्भाव पूर्व पर्याय है और प्रध्वंसाभाव उत्तरपर्याय । प्राग्भाव का नाश करके प्रध्वंस उत्पन्न होता है, पर प्रध्वंस का नाश करके प्राग्भाव पुनरुज्जीवित नहीं हो सकता। जो नष्ट हुआ, वह नष्ट हुआ । नाश अनन्त है। जो पर्याय गयी वह अनन्तकाल के लिए गई, फिर वह वापस नहीं आ सकती है । 'यदतीतमतीतमेव तत्' यह ध्रुव नियम है। यदि प्रध्वंसाभाव नहीं माना जाता है, तो कोई भी पर्याय नष्ट नहीं होगी, सभी पर्यायें अनन्त हो जाएगी, अतः प्रध्वंसाभाव प्रतिनियत पदार्थ-व्यवस्था के लिए नितान्त आवश्यक है ।
3. इतरेतराभाव (अन्योन्याभाव ) : एक पर्याय का दूसरी पर्याय में जो अभाव है, वह इतरेतराभाव है । इसे अन्योन्याभाव भी कहते हैं । स्वभावान्तर से स्वभाव की व्यावृत्ति को अन्योन्याभाव कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ के अपने - अपने स्वभाव निश्चित हैं । एक स्वभाव दूसरे स्वभाव रूप नहीं होता । यह तो स्वभावों की प्रतिनियतता है, वही अन्योन्याभाव है। इसमें एक द्रव्य की पर्यायों का परस्पर में जो अभाव है, वही अन्योन्याभाव फलित होता है। जैसे घट का पट में और पट का घट में वर्तमान कालिक अभाव । कालान्तर में घट के परमाणु मिट्टी, कपास और तन्तु बनकर पट पर्याय को धारण कर सकते हैं। पर वर्तमान में तो घट पट नहीं हो सकता है। यह जो वर्तमान कालीन परस्पर व्यावृत्ति है, यही अन्योन्या भाव है।
प्राग्भाव और प्रध्वंसाभाव से अन्योन्याभाव का कार्य नहीं चलाया जा सकता है, क्योंकि जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति हो, वह प्रारभाव और जिसके होने पर नियम से कारण का नाश होता है, वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है। लेकिन अन्योन्याभाव के अभाव या भाव से कार्योत्पत्ति या विनाश का कोई सम्बन्ध नहीं है । वह तो वर्तमान पर्यायों के प्रतिनियत स्वरूप की व्यवस्था करता है, कि वे एक दूसरे रूप नहीं है। यदि यह अन्योन्याभाव नहीं माना जाता तो कोई भी प्रतिनियत पर्याय सर्वात्मक हो जाएगी, यानी सब सर्वात्मक हो जाएँगे ।
प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव तथा अन्योन्याभाव इन तीनों अभावों का निर्माण एक द्रव्यगत पर्यायों के आधार पर होता है अर्थात् ये अभाव एक द्रव्य की वर्तमान कालीन पर्यायों के आधार पर घटित होता है। जबकि अत्यन्ताभाव दो द्रव्यों के बीच घटित होता है।
4. अत्यन्ताभाव : एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में जो त्रैकालिक अभाव है, उसे अत्यन्ताभाव कहते हैं । जैसे ज्ञान का आत्मा में समवाय है, उसका समवाय कभी भी पुद्गल में नहीं हो सकता यह अत्यन्ताभाव कहलाता है । अन्योन्याभाव वर्तमानकालीन होता है और एक स्वभाव को दूसरे स्वभाव से आवृत्त करना ही उसका लक्ष्य होता है । लेकिन अत्यन्ताभाव न माना जाए तो किसी भी द्रव्य का कोई असाधारण स्वरूप नहीं