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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 223
वास्तव में यह इतना तर्कयुक्त और बुद्धि संगत सिद्धान्त है, कि इसकी सर्वथा उपेक्षा संभव ही नहीं है। सैद्धान्तिक रूप में इसे स्वीकार न करने वाले भी व्यवहार में इससे अछूते नहीं रह सके।
सर्वप्रथम तो ऋग्वेद के नासादीय सूक्त में स्याद्वाद आभासित होता है। उक्त सूक्त के ऋषि के समक्ष दो मत थे। कोई जगत के आदि कारण को सत् कहते थे, तो दूसरे असत् । इस प्रकार ऋषि के सामने जब समन्वय की सामग्री उपस्थित हुई तो उन्होंने कह दिया वह सत् भी नहीं असत् भी नहीं। उनका यह निषेध-मुख उत्तर भी एक पक्ष में परिणत हो गया। इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने प्राचीन सिद्ध होते हैं।
उपनिषदों में आत्मा या ब्रह्म को ही परम तत्व मान करके आन्तर-बाह्य सभी वस्तुओं को उसी का प्रपंच मानने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। अर्थात् अनेक विरोधों की भूमि ब्रह्म या आत्मा ही बनी। फलस्परुप आत्मा, ब्रह्म, अथवा ब्रह्मरुप विश्व को ऋषियों ने अनेक विरोधी धर्मों से अलंकृत किया। किन्तु जब उन विरोधों के तार्किक समन्वय में भी उन्हें पूर्ण संतोष न हुआ, तब उसे वचनागोचर, अवक्तव्य, अव्यदेश्य बताकर अनुभवअगम्य कह दिया। “अणोरणीयान् महतोमहीयान् " (कठो० 1.2.20. श्वेता. 3.20) “संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यकक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।" अनीशश्चात्मा (श्वेता. 1.8) सदसद्वरेण्यम् (मुण्डको. 2.2.1) इत्यादि उपनिषदवाक्यों में दो विरोधी धर्मों का स्वीकार किसी एक ही धर्मी में अपेक्षा भेद से किया गया है, यह स्पष्ट हो जाता है।
इसी प्रकार ईशावास्योपनिषद में आत्मा के सम्बन्ध में कहा गया है- तदे जति तन्नै जति तद् दूरे, तदन्तिके तदन्तरस्य सर्वस्य तद् सर्वस्यास्य बाह्यः ।"' अर्थात् आत्मा चलती भी है और नहीं भी चलती है, दूर भी है और समीप भी है, वह सबके अन्तर्गत भी है, बाहर भी है।
ये उद्गार स्याद्वाद से ही प्रभावित हैं। शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य भले ही एक वस्तु में अनेक धर्मों का अस्तीत्व असम्भव कहकर स्याद्वाद का विरोध करते हैं, किन्तु जब वे अपने मन्तव्य का निरुपण करते हैं, तो उन्हें भी अनन्यगत्या स्याद्वाद का आधार लेना ही पड़ता है। ब्रह्म के पर और साथ ही अपर रुप की कल्पना में अनेकान्त का प्रभाव स्पष्ट है। उन्होंने सत्य की परमार्थ सत्य, व्यवहार सत्य और प्रतिभास सत्य के रुप में जो व्याख्या की है, उससे अनेकान्त की ही पुष्टि होती है। वे कहते हैं- दृष्टं किमपि लोकेऽस्मिन न निर्दोषं न निर्गुणम् । अर्थात इस लोक में दिखाई देने वाली कोई भी वस्तु न निर्दोष है और न निर्गुण है। तात्पर्य यह है, कि प्रत्येक वस्तु में किसी अपेक्षा से दोष है, तो किसी अपेक्षा से गुण भी हैं। यह अपेक्षावाद अनेकान्तवाद का रुप नहीं तो क्या है?