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220 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
आ जायेगा और रस प्रधान बन जाएगा। इस प्रकार समस्त शब्द गौण मुख्य भाव से अनेकान्त अर्थ के प्रतिपादक हैं। इसी सत्य का उद्घाटन 'स्यात्' शब्द सदैव करता रहता है।
“स्यात्' एक सजग प्रहरी है, जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता। वह अविवक्षित धर्मों के अधिकार का संरक्षक है। इसलिए जो लोग स्यात् का रुपवान के साथ अन्वय करके और उसका शायद, संभवतः अथवा कदाचित अर्थ करके घड़े में रुप की स्थिति को भी संदिग्ध बनाना चाहते हैं, वे वस्तुतः प्रमाद भ्रम में हैं। इसी प्रकार ‘स्यादस्ति घटः' वाक्य में 'अस्ति' यह अस्तित्व अंश घट में सुनिश्चित रूप से विद्यमान है। ‘स्यात्' शब्द उस अस्तित्व की स्थिति कमजोर नहीं बनाता। वरन् उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मों के गौण सद्भाव का प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है, कि कहीं अस्ति नाम का धर्म, जिसे शब्द से उच्चारित होने के कारण प्रमुखता मिली है, पूरी वस्तु पर ही अधिकार न कर ले, अन्य नास्ति आदि धर्मों का स्थान समाप्त ही न कर दे। इस भय का कारण है, कि प्राचीन काल से 'नित्य ही है' 'अनित्य ही है' आदि आधिकारिक प्रकृति के अंशवाक्यों ने वस्तु पर पूर्ण अधिकार जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगत में अनेक प्रकार से वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है। साथ ही इस वाद-प्रतिवाद ने अनेक कुमतवादों की सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संघर्ष, अनुदारता, असहिष्णुता आदि से विश्व को अशान्त और संघर्षपूर्ण हिंसा ज्वाला में पटक दिया है। 'स्यात्' शब्द वाक्य के उस जहर को निकाल देता है, जिससे अहंकार का सृजन होता है।
‘स्यात्' शब्द एक ओर एक निश्चित अपेक्षा से जहाँ अस्तित्व धर्म की स्थिति सुदृढ़ और सहेतुक बनाता है, वहाँ वह उसकी उस सर्वहारा प्रवृत्ति को भी नष्ट करता है, जिससे वह किसी वस्तु का संपूर्ण स्वरूप बनने का दावा करे। 'स्यात्' शब्द एक ऐसी अंजन शलाका है, जो दृष्टाओं की दृष्टि को विकृत नहीं होने देती, वह उसे पूर्णदर्शी तथा निर्मल बनाती है। इस अविवक्षित संरक्षक, दृष्टिविषापहारी, सचेतक प्रहरी, अहिंसा और सत्य के प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, शब्द को सुधामय करने वाले तथा सुनिश्चित अपेक्षाद्योतक ‘स्यात्' शब्द के स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकों ने न्याय तो किया ही नहीं, किन्तु उसके स्वरूप का 'शायद, सम्भव और कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायों से विकृत करने का अशोभन प्रयास किया है और आज तक किया जा रहा है।
विरोध-परिहार : सर्वाधिक थोथा तर्क तो यह दिया जाता है, कि घड़ा जब अस्ति है, तो नास्ति कैसे हो सकता है? यह तो प्रत्यक्ष विरोध है। लेकिन थोड़ा सा गहराई से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है, कि घड़ा केवल घड़ा ही तो है, कपड़ा तो नहीं, टेबल तो नहीं। तात्पर्य यह है, कि वह घट से भिन्न अनन्त पदार्थों रूप नहीं है।