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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 219
प्रतिपादक संबंध है। इस विराट अनन्त धर्मात्मक वस्तु को स्वयं जानने की पद्धतिअनेकान्त दृष्टि है। इसी ज्ञान को दूसरों को समझाने की शब्द-प्रयोग की प्रणाली स्याद्वाद है। अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा द्वारा प्रतिपादित करने वाला सिद्धांत स्यावाद कहलाता है। इस प्रकार स्यादवाद श्रुत है और अनेकान्तवाद वस्तुगत तत्त्व है।
आचार्य समन्त भद्र ने उसे स्पष्ट किया है - ‘स्याद्वाद और केवल ज्ञान दोनों ही वस्तुतत्त्व के प्रकाशक हैं। भेद इतना ही है, कि केवलज्ञान वस्तु का साक्षात् ज्ञान कराता है, जबकि स्याद्वाद श्रुत होने से असाक्षात् ज्ञान कराता है।"
पदार्थ में व्याप्त विविध गुण, धर्मों को जानना उतना कठिन नहीं है, जितना कि शब्दों के द्वारा उनका कथन करना, क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मों को एक साथ जान तो सकता है, किन्तु एक शब्द एक समय में उन सभी धर्मों का कथन नहीं कर सकता है। वह एक समय में वस्तु के किसी एक ही धर्म का आंशिक कथन करेगा। इस प्रकार जिस धर्म की वचन प्रयोग के समय विवक्षा होती है, वह धर्म मुख्य और दूसरे धर्म गौण कहलाते हैं। वक्ता के वचन व्यवहार के दृष्टिकोणों को समझने में श्रोता को कोई विपर्यास न हो, यही स्यादववाद का आशय है। अर्थात् स्याद्वाद भाषा की ऐसी शैली है, जो वस्तु के स्वरूप को निर्दोष रूप से विवेचित करती है।
स्व तथा पर के विचारों, मन्तव्यों, वचनों तथा कार्यों में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षाओं या दृष्टिकोणों का ध्यान रखते हुए वस्तु का अपेक्षा विशेष से कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है।
स्यादवाद दृष्टि विविध अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में नित्यता, अनित्यता, सदृशता, विसदृशता, वाच्यता, अवाच्यता, सत्ता, असत्ता आदि परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होने वाले धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका सुन्दर एवं बुद्धि संगत समन्वय प्रस्तुत करती है।
स्याद्वाद विशिष्ट भाषा पद्धति : स्याद्वाद सुनय का निरुपण करने वाली विशिष्ट भाषा पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चित रूप से बताता है, कि 'वस्तु केवल इसी धर्म वाली ही नहीं है, उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म समान है।' वस्तु के अविवक्षित गुणधर्मों के अस्तित्व की रक्षा ‘स्यात्' शब्द करता है। ‘रुपवान घटः' में स्यात् शब्द 'रुपवान' के साथ नहीं जुटता, क्योंकि रूप के अस्तीत्व की सूचना तो 'रुपवान' शब्द स्वयं ही दे रहा है, किन्तु अन्य अविवक्षित शेष धर्मों के साथ उसका अन्वय है। वह 'रुपवान' को पूरे घड़े पर अधिकार जमाने से रोकता है
और साफ कह देता है, कि घड़ा बहुत बड़ा है, इसमें अनन्त धर्म है। रूप भी उसमें से एक है। यद्यपि रूप की विवक्षा होने से अभी रूप हमारी दृष्टि में मुख्य है और वही शब्द के द्वारा वाच्य बन रहा है। लेकिन रस की विवक्षा होने पर वह गौण स्थान पर