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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 213
3. अनुभाग संक्रमण 4. प्रदेश संक्रमण। ___इस प्रकार के संक्रमण की कुछ निश्चित मर्यादाएँ हैं। उदय में आने पर प्रत्येक कर्म अपनी मूल प्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। उनकी मूल प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता है। किन्तु उत्तर प्रकृतियाँ परिवर्तनीय होती हैं। एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरण कर्म श्रुतज्ञानावरण कर्म के रुप में परिणत हो सकता है। फिर उसका फल भी श्रुत-ज्ञानावरण के रुप में ही होगा। किन्तु उत्तर प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जो सजातीय होते हुए भी संक्रमण नहीं करती जैसे- दर्शन मोहनीय
और चारित्र मोहनीय। दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय के रुप में तथा चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के रुप में संक्रमण नहीं करते। इसी प्रकार सम्यक्त्व वेदनीय और मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। आयुष्य की उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। जैसे नारक आयुष्य तिर्यंच आयुष्य के रुप में या अन्य आयुष्य के रुप में नहीं बदल सकती। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।
6. उदय : बद्ध कर्म का फलदान उदय है। यदि कर्म अपना फल देकर निजीर्ण हो जाए तो फलोदय कहते हैं। और फल को दिए बिना ही नष्ट हो जाए तो प्रदेशोदय कहा जाता है।
7. उदीरणा : नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से आम आदि फल पकाये जाते हैं, वैसे ही साधना से आबद्ध कर्म का नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है। सामान्यतः यह नियम है, कि जिस कर्म का उदय होता है, उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है।
8. उपशमन : कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है। अर्थात् कर्म की वह अवस्था, जिसमें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं, किंतु उर्द्वतन, अपवर्तन और संक्रमण की संभावना हो वह उपशमन है। जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना, जिससे वह अपना कार्य न कर सके। वैसे ही उपशमन क्रिया से कर्म को इस प्रकार दबा देना, जिससे वह अपना फल नहीं दे सके। किन्तु जैसे आवरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं, वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं।
9. निधत्ति : जिसमें कर्मों का उदय व संक्रमण न हो सके किन्तु उद्ववर्तन अपवर्तन की संभावना हो वह निधत्ति है। जो कर्मबन्धन गाढ़ा हो, जिसे तोड़ने में तीव्र तप तीव्र शुद्ध परिणाम, प्रायश्चित आदि का पुरुषार्थ करना पड़े, उसे निधत्त कर्मबन्ध समझना चाहिए। यह चार प्रकार के हैं। 1. प्रकृति निधत्त 2. स्थिति निधत्त 3. अनुभाग निधत्त तथा 4. प्रदेश निधत्त।