________________
182 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
श्रमण नहीं होता, ऊँ का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्यवास से कोई मुनि और कुश का चीवर पहनने से कोई तापस नहीं होता।'''' तात्पर्य यह है, कि भाव के बिना द्रव्य कर्म पाखण्ड होगा, महत्वहीन होगा।
द्रव्य कर्म और भाव कर्म में निमित्त-नैमित्तिक रूप द्विमुख कार्य कारण भाव सम्बन्ध है। द्रव्यकर्म कार्य है और भाव कर्म कारण है। यह कार्य कारण भाव मुर्गी
और अण्डे के कार्य कारण भाव सदृश है। मुर्गी से अण्डा उत्पन्न होता है, अतः मुर्गी कारण है और अण्डा कार्य है। इसी प्रकार अण्डे से मुर्गी उत्पन्न होती है, अतएव अण्डा कारण और मुर्गी कार्य है। इस प्रकार दोनों कार्य और दोनों ही कारण है। अतः यह जिज्ञासा व्यक्त की जाए, कि पहले मुर्गी थी या अण्डा? तो इसका समाधान नहीं' किया जा सकता; क्योंकि समुत्पन्न करती है। अतः दोनों में कार्य-कारण भाव स्पष्ट है। उनमें पौर्वोपर्य भाव नहीं बतलाया जा सकता। संतति की दृष्टि से उनका पारस्परिक कार्य कारण भाव अनादि है। वैसे ही द्रव्य और भाव कर्म का कार्य कारण भाव संबंध संतति की अपेक्षा से अनादि है। दोनों एक दूसरे के उत्पन्न होने में निमित्त है।
द्रष्टा और भाव कर्म का कार्य कारण भाव निमित्त-नैमित्तिक रूप है, न कि उपादानोपादेय रूप। जैसे मिट्टी का एक पिण्ड घड़े आदि का उपादान कारण है, किन्तु कुम्भकार रूपी निमित्त के अभाव में वह घट नहीं बनता, वैसे ही कार्मण वर्गणा के पुद्गलों में कर्मरूप में परिणत होने की शक्ति है, इसलिए पुद्गल द्रव्य कर्म का उपादान कारण है, किन्तु जीव में भाव कर्म की सत्ता का अभाव हो तो पुद्गल द्रव्य कर्म में परिणत नहीं हो सकता। अतः द्रव्य कर्म भाव कर्म का निमित्त कारण है और भाव कर्म भी द्रव्य कर्म का निमित्त कारण है। अन्यान्य दार्शनिकों ने भी द्रव्य और भाव कर्म को विविध नामों से स्वीकार किया है।
कर्म का अस्तित्व (प्रामाण्य ) : कर्म के अस्तित्व का पुष्ट प्रमाण संसार की विचित्रता और विषमता है। लोक का वैचित्र्य और वैषम्य कर्म जनित है। सब जीव स्वभावतः समान होने पर भी उनमें मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि के रूप में जो महान् अन्तर दिखाई पड़ता है, इसका क्या कारण है? केवल मानव जगत को ही लें, तो भी कोई निर्धन है, कोई धनवान है। कोई स्वस्थ है, कोई बीमार। कोई अज्ञ है, कोई विज्ञ है। कोई निर्बल तो कोई सबल है। कोई सुन्दर है, तो कोई कुरूप है। कोई सुखी है, कोई दुःखी है। कोई गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में रहता है, तो कोई घासफूस की टूटी-फूटी झोंपड़ियों में। कोई मेवे मिष्ठान्न खाता है, तो कोई भूख से तड़प रहा है। ये सब वैचित्र्य कर्म सत्ता को प्रमाणित करते हैं। कर्मों के अनुसार ही संयोग और वियोग का यह नाटक रंगीन खेल दिखता है।
विषमता और भेद की समस्या और भी अधिक प्रखर होकर आश्चर्यचकित तब