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180 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
आत्मा भी राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म वर्गणा को अपनी ओर खींचती है। कर्म वर्गणा एक प्रकार की सूक्ष्म रज है, जिसे सर्वज्ञ या अवधिज्ञानी ही जान सकते हैं।
इस प्रकार कर्मवाद किसी न किसी रूप में भारत की समस्त दार्शनिक एवं नैतिक विचारधाराओं में विद्यमान है, तथापि इसका जो सुविकसित रूप जैन परम्परा में उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। कर्मवाद जैन विचारधारा एवं आचार परम्परा का अनुपम अविच्छेद्य अंग है। अतः यहाँ हम जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित 'कर्म सिद्धान्त' का सांगोपांग विवेचन करेंगे।
कर्म-सिद्धान्त : जैन दर्शन का कर्मवाद नितांत मौलिक है, साथ ही बड़ा वैज्ञानिक भी है। जैन वाङ्मय में कर्मवाद पर मार्मिक एवं विशद् विवेचन हुआ है। कर्म-स्वरूप, कर्म प्रकृति, कर्म स्थिति, कर्म शक्ति, कर्म-भेद, कर्म बन्ध के हेतु एवं कर्म मोक्ष की प्रक्रिया आदि पर अनेक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये हैं।
भगवान महावीर के अभिमत में कर्म का अर्थ है-'आत्मा की सत्-असत् प्रकृति से आकृष्ट होकर कर्म रूप में परिणत होने वाला पुद्गल समूह।" आत्मा के दो प्रकार हैं-मुक्त एवं बद्ध। जो आत्माएँ कर्मों से सर्वथा मुक्त हैं, वे स्वभाव में स्थित हैं। वे सर्वदा के लिए समस्त बन्धनों से मुक्त हो चुकी हैं। जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकल चुकी हैं। मुक्त आत्माओं में कोई भेद नहीं है। वे सब स्वरूपतः एक समान हैं। उनके कर्मों के समस्त आवरण हट चुके हैं, वे पूर्णतः निरावरण हैं। उनका कोई रूप-रंग नहीं है, न कोई लिंग है-“उन्हें कोई उपमा नहीं दी जा सकती है।” वे एक अरूप सत्ता हैं। उनके स्वरूप को कोई भाषा नहीं बता सकती। कोई शब्द उस विशालता को बांध नहीं सकते। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते सब स्वर निःशब्द हो जाते हैं, व्यर्थ हो जाते हैं। परम आत्माएं परिपूर्ण, निःसंग और निर्लेप हैं। अपने स्वभाव में निरत हैं। एकदम ज्योतिर्मय और शाश्वत सुख में अवस्थित हैं। वे अजर-अमर बन चुकी है। उनके लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहा है। वे कृत-कृत्य हैं, सिद्ध हैं। हर आत्मा का साध्य उस सहजावस्था तक पहुँचना है।
कर्मबद्ध आत्माओं की स्थिति बड़ी विषम और दयनीय है। उन्हें चतुर्गति-रूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। अनेक रूप-योनि के साथ अनुबन्ध करना होता है।" अनुकूल-प्रतिकूल नाना रूप स्पर्शों का प्रति संवेदन करना पड़ता है।" तरह-तरह के सुखों एवं दुःखों की अनुभूति करनी पड़ती है। कर्म के संयोग से जीव मूढ, दुखी
और बहुत वेदना वाले बन जाते हैं। उन्हें अपने कृत कर्मों से नरक और तिर्यंच योनियों में भारी कष्ट उठाने पड़ते हैं।"
जीव की विभिन्न परिणतियाँ कर्मों के आधार पर होती हैं। मौलिक रूप से जीव शुद्ध है, एक स्वरूप वाला है, चिन्मय है, किन्तु कर्म आवरण के कारण उसकी विविध दशाएँ हो जाती हैं। उसी से उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। स्वर्ण दूसरे