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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 203
(ii) लाभ अन्तराय कर्म : इस कर्म के उदय से पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होने पर भी, जिसके कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो।
(iii) भोग अन्तराय कर्म : जो वस्तु एक बार भोगी जाए वह भोग है। जैसे खाद्य-पेय आदि। इस कर्म के उदय से भोग्य पदार्थ सामने होने पर भी भोगे नहीं जा सकते। जैसे-पेट खराब होने पर सरस भोजन तैयार होने पर भी खाया नहीं जा सकता।
(iv) उपभोग अन्तराय कर्म : जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके वह उपभोग है, जैसे वस्त्राभूषण। इस कर्म के उदय से पर्याप्त उपभोग्य सामग्री उपलब्ध होने पर भी उन्हें भोगा नहीं जा सकता।
(v)वीर्य अन्तराय कर्म : जिसके उदय से सामर्थ्य का प्रयोग नहीं किया जा सके और जिसके प्रभाव से जीव के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम क्षीण होते हैं।
अन्तराय कर्म दो प्रकार का है - 1. प्रत्युत्पन्न विनाशी अन्तराय कर्म : जिसके उदय से प्राप्त वस्तु का विनाश
होता है। 2. विहित-आगामी पथ अन्तराय कर्म : भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु
की प्राप्ति का अवरोधक।
अन्तरायकर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की है।
जिस प्रकार तूम्बा स्वभावतः जल की सतह पर तैरता है, उसी प्रकार जीव स्वभावतः उर्ध्वगतिशील है, लेकिन मृतिकालिप्त तूंबा जैसे जल में नीचे जाता है, वैसे ही कर्मों से आबद्ध आत्मा की अधोगति होती है। वह भी नीचे जाती है।
कर्म-बन्ध के कारण - कर्मबन्ध मुख्य रुप से पाँच आस्रवों के कारण होता है। कर्मबन्धन से बचने के लिए इन्हें जानना अति आवश्यक है। ये पाँच आस्रव निम्नलिखित हैं
1. मिथ्यात्व - "तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" : विपरीत श्रद्धा करना मिथ्यात्व है। यह सम्यग्दर्शन के विपरीत या विरुद्ध अर्थ वाला होता है। अर्थात् यथार्थ रूप से पदार्थों के श्रद्धान , निश्चय करने की रुचि सम्यग्दर्शन है" एवं पदार्थों के अयथार्थ श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं।
यह अयथार्थ श्रद्धान दो प्रकार से होता है- 1. वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और 2. वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। जैसे तीर्थंकरों द्वारा कथित सच्चे मोक्षमार्ग में श्रद्धा न होना या सुदेव, सद्गुरु व सुधर्म में श्रद्धा न होना मिथ्यात्व का प्रथम सोपान है। अज्ञानियों द्वारा कल्पित मोक्ष मार्ग में रुचि होना व कुदेव, कुगुरु व कुधर्म पर श्रद्धा