________________
जैन दार्शनिक सिद्धान्त 201
26. अपर्याप्त नाम : जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके ।
27. साधारण शरीर नाम : जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही साधारण शरीर प्राप्त हो
28. प्रत्येक शरीर नाम : जिस कर्म के उदय से जीवों को भिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त होता हैं ।
29. स्थिर नाम : जिस कर्म के उदय से हड्डी दाँत आदि स्थिर अवयवों की प्राप्ति हो ।
30. अस्थिर नाम : जिस कर्म के उदय से जिह्वा आदि अस्थिर अवयव प्राप्त हो ।
31. शुभ नाम जिस कर्म के उदय होने से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त हो ।
32. अशुभ नाम : जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अशुभ होते हैं।
33. शुभग नाम जिस कर्म के उदय से किसी भी प्रकार का उपकार न करने पर भी और सम्बन्ध न होने पर भी जीव सबके मन को प्रिय लगे ।
-
34. दुर्भग नाम : जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर और सम्बन्ध होने पर भी अप्रिय लगे ।
35. सुस्वर नाम : जिसके उदय से जीव का स्वर श्रोता के हृदय में प्रीति उत्पन्न करे ।
36. दुःसवर नाम : जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर अप्रीतिकर हो । 37. आदेय नाम : जिस कर्म के उदय से जीव का वचन बहुमान्य हो । 38. अनादेय नाम : जिस कर्म के उदय से युक्तिपूर्ण वचन भी अमान्य हो । 39. यश: कीर्तिनाम : जिस कर्म के उदय से जीव को यश और कीर्ति प्राप्त
हो ।
40. अयशः कीर्तिनाम : जिस कर्म के उदय से जीव को अपयश और अपकीर्ति प्राप्त हो ।
41.
निर्माण नाम : जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग-प्रत्यंग व्यवस्थित हो । 42. तीर्थंकर नाम : जिस कर्म के उदय से धर्म तीर्थ की स्थापना करने की
शक्ति प्राप्त हो ।
नाम कर्म की अल्पतम स्थिति आठ मुहुर्त तथा उत्कृष्ट स्थिति कोटाकोटी सागरोपम की है। 3
113
7. गोत्र कर्म : जिस कर्म के उदय से जीव उच्चावच कहलाता है, वह गोत्रकर्म