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190 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
ईश्वर और कर्मवाद : जैन दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है, कि जीव जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है।" न्याय दर्शन" की तरह वह कर्मफल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता। कर्म परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है। जिससे वह द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, प्रभृति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक - प्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा के संस्कारों को मलीन करता है।" उससे उनका फलोपभोग होता है। जीव के किए गए पाप कर्मों का परिपाक पापकारी ही होता है तथा कल्याण कर्मों का विपाक कल्याणकारी ही होता है ।
कम्प्यूटर या केल्कुलेटर जैसी गणित करने वाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती। वैसे ही कर्म भी जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता, उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की आवश्यकता नहीं है । ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के कर्म होंगे। कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा । इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानना और दूसरी ओर उसे अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना, वस्तुतः ईश्वर की सत्ता का उपहास है । इससे यह भी सिद्ध होता है, कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधिन ही कार्य करता है। दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने की शक्ति को अस्वीकार करना होगा । यदि वह ईश्वर के सहारे ही अपना फल दे सकता है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधिन हो जाएंगे। इससे तो यही श्रेष्ठ है, कि स्वयं कर्म को ही अपना फलदाता स्वीकार कर लिया जाए।
यदि प्रत्येक कार्य का संचालक ईश्वर हो, तो जीवों को सुख-दुःख देने में ईश्वर के ऊपर पक्षपाती होने का दोष आता है । जो जीव सुखी हैं, उन पर ईश्वर का प्रेम है और जो दुःखी हैं, उन पर ईश्वर का द्वेष है। ऐसे ईश्वर की आत्मा राग-द्वेप से मलिन है, अतः हम ऐसे ईश्वर को परमात्मा कैसे मानें?
यदि सृष्टि उत्पन्न करने वाली किसी शक्ति को मानें, तो उसका कर्ता अथवा स्वामी भी किसी को मानना पड़ेगा और फिर उसका स्वामी । इस प्रकार एक के बाद एक ऐसे स्वामियों की कतार लग जायेगी, जो अनन्त तक चली जाएगी, फिर भी स्वामी का अन्त नहीं दिखेगा। ईश्वर को कर्त्ता मान लेने से पुरुषार्थ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। जैसी कर्त्ता के जची वैसी सृष्टि कर डाली। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ही अपने कर्मों का कर्ता है और सुख - दुःख का भोक्ता है। परमात्मा रागद्वेष से रहित है, उसे संसार से मतलब ही क्या ?
वैदिक दर्शनों का यह मन्तव्य है, कि आत्मा सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ की कठपुतली है । उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है । स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने वाला ईश्वर है । ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव