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192 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
और प्रदेश का बंध योग से होता है। स्थिति व अनुभाग का बंध कषाय से होता है। संक्षेप में कषाय ही कर्म बंध का मुख्य हेतु है। कषाय के अभाव में साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान तक दोनों कारण रहते हैं, अतः वहाँ तक साम्परायिक बन्ध होता है। कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिक बंध कहलाता है। गमनागमन आदि क्रियाओं से जो कर्म बंध होता है, वह ईर्यापथिक बंध कहलाता है।
विस्तार से कषाय के चार भेद हैं - क्रोध, मान, माया व लोभ। संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं - राग और द्वेष।” राग और द्वेष में उन चारों का समावेश हो जाता है। राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश होता है। राग और द्वेष के द्वारा ही अष्ट विध कर्मों का बन्धन होता है। अतः राग द्वेष को ही भाव कर्म माना है। राग-द्वेष का मूल मोह ही है। कर्म बन्धन वस्तु और निमित्त से नहीं आत्म-अध्यवसाय से, रागद्वेषात्मक संकल्प से होता है।' भाव कर्म के बिना नये कर्मों का बंध नहीं होता। कर्मों का बन्धन मूलतः आत्म परिणमों के आधार पर होता है, पर वस्तु प्रत्ययिक अणु मात्र भी बन्धन नहीं होता। दूसरे कितने भी निमित्त मिल जाएँ, आत्म भाव जब तक उत्तेजित नहीं होते कर्म बंध नहीं होता। आत्मभाव उन निमित्तों से प्रभावित होते हैं, राग-द्वेष उत्पन्न होता है, तभी बन्धन की क्रिया फलित होती है। निमित्तों में आत्मा निरपेक्ष रह जाए, किसी प्रकार की कोई चंचलता न हो तो उसके कर्म-बन्धन नहीं होता।
जैन दर्शन की तरह ही बौद्ध दर्शन ने भी कर्मबंधन का कारण मिथ्याज्ञान अथवा मोह माना है। न्याय दर्शन का भी यही मन्तव्य है, कि मिथ्याज्ञान ही मोह है। प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है, अपितु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना, बुद्धि ये अनात्म होने पर भी इनमें "मैं ही हूँ'' ऐसा ज्ञान मिथ्या ज्ञान और मोह है। यही कर्म बन्ध का कारण है। वैशेषिक दर्शन भी प्रकृत कथन का समर्थन करता है। सांख्य दर्शन भी बंध का कारण विपर्यास मानता है और विपर्यास ही मिथ्याज्ञान है। योग दर्शन क्लेश को बंध का कारण मानता है और क्लेश का कारण अविद्या है। उपनिषद्, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र में भी अविद्या को ही बंध का कारण माना
है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी ‘समयसार' में वैदिक दर्शनों की तरह ‘अज्ञान' को ही बन्ध का प्रधान एवं सबल कारण माना है। उन्होंने स्पष्ट कहा है, कि "ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है और अज्ञान ही बन्ध का हेतु है। इस जगत में प्रकृतियों के साथ यह (प्रगट) बन्ध होता है, वह वास्तव में अज्ञान की ही गहन महिमा स्फुरित होती है।
इस प्रकार जैन दर्शन तथा अन्य दर्शनों में कर्म बन्ध के कारणों में शब्द भेद तथा प्रक्रिया भेद होते हुए भी मुख्य रूप से मिथ्यात्व या अज्ञान को सभी ने स्वीकार