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196 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सके। प्रचला कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न होती है, कि खड़े-खड़े और बैठे-बैठे आये। प्रचला प्रचला कर्म से चलते-चलते निद्रावस्था में सम्पन्न करे, वैसी प्रगाढ़तम नींद।
दर्शनावरण कर्म भी देशघाती और सर्वघाती रूप से दो प्रकार का है। चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनावरण देश घाती हैं और शेष छह प्रकृतियाँ सर्वघाती है। सर्वघाती प्रकृतियों में केवल दर्शनावरण प्रमुख है।
दर्शनावरण कर्म का पूर्ण क्षय होने पर जीव की अनन्त दर्शन शक्ति प्रकट होती है, वह केवल दर्शन का धारक बनता है। जब उसका क्षयोपशम होता है, तब चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन प्रकट होता है। दर्शनावरण कर्म की न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहूत की तथा उत्कृष्ट स्थिति तो कोटाकोटि सागरोपम की है।"
3. वेदनीय कर्म : आत्मा के अव्याबाध गुण को आवृत करने वाला कर्म वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म से आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव होता है। उसके दो भेद हैं - 1. साता वेदनीय और 2. असाता वेदनीय। सातावेदनीय कर्म से जीव को भौतिक सुखों की उपलब्धि होती है तथा असाता वेदनीय कर्म से मानसिक या शारीरिक दुःख प्राप्त होता है।" वेदनीय कर्म मधु से लिप्त तलवार की धार के समान है। तलवार की धार पर लिप्त मधु को चाटने के समान सातावेदनीय है और जीभ कट जाने के समान असातावेदनीय है।
सातावेदनीय कर्म आठ प्रकार के होते हैं - मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ स्पर्श, सुखित मन, सुखित वाणी, सुखित काय जिससे प्राप्त हो। इनके विपरीत फल वाले असाता वेदनीय कर्म होते हैं।
वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति उत्तराध्ययन और प्रज्ञापना में अन्तमुहूर्त की बताई गई है। भगवती सूत्र में दो समय की कही गई है। इन दोनों में विरोध नहीं समझना चाहिये क्योंकि मुहूर्त के अन्दर का समय अन्तमुहूर्त कहलाता है। दो समय को अन्तमुहूर्त कहने में कोई विसंगति नहीं है। वह जघन्य अन्तमुहूर्त हैं। किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र तथा अन्य कई ग्रन्थों में बारह मुहूर्त की प्रतिपादित की गई है। उत्कृष्ट स्थिति सर्वत्र बीस कोटाकोटि सागर की है।
____4. मोहनीय कर्म : जो आत्मा में मूढता उत्पन्न करे वह मोहनीय है। आठ कर्मों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली है। यह आत्मा के वीतराग भाव-शुद्ध-स्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा राग द्वेष आदि विकारों से ग्रस्त होता है। मोहनीय कर्म के उदय से जीव को तत्त्व-अतत्त्व का भेद-विज्ञान नहीं हो पाता। वह संसार के विकारों में उलझ जाता है। इसे अपना स्वरूप ज्ञान भी नहीं रहता। जैसे मदिरापान से व्यक्ति परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता, वह हिताहित के विवेक से विहिन हो जाता है, वैसी ही स्थिति मोहनीय कर्म के उदय से हो जाती है।