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144 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
दर्शन, पूजन के अनन्तर संगीत द्वारा दर्शनार्थी अपना मनोरंजन भी करते
थे। भगवान के समक्ष नृत्य-गान करने वाले भी रहते थे। 6. चैत्यालय कई कक्षों में विभक्त रहता था, जिन कक्षों में कई प्रकार की
सामाजिक प्रवृत्तियाँ सम्पन्न की जाती थीं। 7. चैत्यालय में सामाजिक विषयों की चर्चा एवं सामाजिक समस्याओं के
निर्णय भी किये जाते थे।
चैत्यालय धार्मिक संस्था के साथ सामाजिक संस्था भी था। इस पर वैयक्तिक स्वत्व न होकर सामाजिक स्वत्व माना जाता था। व्यक्ति विशेष द्वारा चैत्यालय का निर्माण कराये जाने पर भी स्वत्व सामाजिक ही रहता था।
मानव जीवन के परिष्कार के लिए उक्त सामाजिक संस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। इन संस्थाओं द्वारा जीवन की कुत्सित वृत्तियों का निषेधकर सुसंस्कारों एवं सामाजिक दायित्व और कर्तव्यों का भी परिज्ञान कराया गया है। जैन संस्कृति में नारी की सामाजिक स्थिति :
नारी को स्वतन्त्र रूप से विकसित और पल्लवित होने की पूर्ण सुविधाएँ प्राप्त थीं। स्वयं वह अपने भाग्य की विधायिका थीं। वह जीवन में पुरुष की अनुगामिनी थी, दासी नहीं। उसका अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व होता था। ब्राह्मी और सुन्दरी जैसी नारियाँ आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर समाज का और स्वयं का उद्धार करती थीं। मुस्लिम काल के समान नारी अन्तःपुर में केवल केलि-क्रिडा का साधन ही नहीं थी, वरन् अनेक सपत्नियों के बीच रहकर भी समय प्राप्त कर आत्मोत्थान में प्रवृत्त होने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। उसके कल्याण में कोई भी बाधक नहीं बनता था।
समाज में कन्या की स्थिति वर्तमान काल की अपेक्षा अच्छी थी। माता-पिता कन्या जन्म को अभिशाप नहीं मानते थे। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों का पालन पुत्रों के समान किया था। अर्थात् पुत्रों एवं पुत्रियों दोनों के लालन-पालन में कोई भेदभाव नहीं रखा था। ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों को उद्बोधित किया कि, इस लोक में विद्यमान व्यक्ति पण्डितों के द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है। विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है। विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ-साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है।
अतः हे पुत्रियों! तुम दोनों विद्या र इण करने में प्रयत्न करो, क्योंकि विद्या ग्रहण करने का यही काल है।
इस प्रकार उपदेश देकर श्रुतदेवता के पूजन पूर्वक स्वर्ण के विस्तृत पट्ट पर वर्णमाला को लिखकर आदिदेव ने अपनी कन्याओं को वर्णमाला की शिक्षा दी। आदि तीर्थंकर ने पुत्रों की अपेक्षा कन्याओं की शिक्षा का प्रबन्ध सबसे पहले किया