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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 163
अपेक्षाकृत कम महत्त्व के देवताओं या देवतुल्य मनुष्यों के मूर्तन में, तीर्थंकरों और अतीत के अन्य सुविख्यात पुरुषों के जीवन चरित्र के दृश्यांकनों में और विविध अलंकरण प्रतीकों के प्रयोग में कलाकार किन्हीं कठोर सिद्धांतों से बँधा न था, वरन् उसे अधिकतर स्वतंत्रता थी।
इसके अतिरिक्त भी कलाकार को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का पर्याप्त अवसर था, प्राकृतिक दृश्यों तथा समकालीन जीवन की धर्म-निरपेक्ष गतिविधियों के शिल्पांकन या चित्रांकन द्वारा जो कभी-कभी विलक्षण बन पडे, जिनसे विपुल ज्ञातव्य तत्त्व प्राप्त होते हैं और जिनमें कलात्मक सौंदर्य समाया हुआ है। पर इन सब में भी कलाकार को जैन धर्म की शुद्धाचार नीति को ध्यान में रखना था, इसीलिए उसे शृंगार, अश्लीलता और अनैतिक दृश्यों की उपेक्षा करनी पड़ी।
मंदिर-स्थापत्य-कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति-पूजा के परिणाम स्वरूप हुआ, जो जैनों में कम से कम इतिहास-काल के प्रारंभ से प्रचलित रही है। अपने मंदिरों के निर्माण में जैनों ने विभिन्न क्षेत्रों और कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु उन्होंने अपनी स्वयं की संस्कृति और सिद्धान्तों की दृष्टि से कुछ लाक्षणिक विशेषताओं को भी प्रस्तुत किया, जिनके कारण जैन कला को एक अलग ही स्वरूप मिल गया। कुछ स्थानों पर उन्होंने समूचे ‘मंदिर-नगर' ही खड़े कर दिए। ____ मानवीय मूर्तियों के अतिरिक्त, अलंकारिक मूर्तियों के निर्माण में भी जैनों ने अपनी ही शैली अपनायी और स्थापत्य के क्षेत्र में अपनी विशेष रुचि के अनुरूप स्तंभाधारित भवनों के निर्माण में उच्च कोटि का कौशल प्रदर्शित किया। इनमें से कुछ कला-समृद्ध भवनों की विख्यात कला मर्मज्ञों ने प्राचीन और आरंभिक मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य की सुन्दरतम् कृतियों में गणना की है। बहुत बार उत्कीर्ण और तक्षित कलाकृतियों में मानव तत्त्व इतना उभर आया है, कि विशाल निग्रंथ दिगम्बर जैन मूर्तियों में जो कठोर संयम साकार हो उठा लगता है, उसका प्रत्यावर्तन हो गया। कला-कृतियों की अधिकता और विविधता के कारण उत्तरकालीन जैन कला ने इस धर्म की भावनात्मकता को अभिव्यक्त किया है।
जैन मंदिरों और वसदियों के सामने विशेषतः दक्षिण भारत में स्वतंत्र खड़े स्तंभ जैनों का एक अन्य योगदान है। मानस्तंभ कहलाने वाला यह स्तंभ उस स्तंभ का प्रतीक है, जो तीर्थंकर के समवसरण (सभागार) के प्रवेश द्वारों के भीतर स्थित कहा जाता है। स्वयं जिन मन्दिर समवसरण का प्रतीक है।
जैन स्थापत्य कला के आद्य रूपों में स्तूप एक रूप था। इसका प्रमाण मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त हुआ है। वहाँ एक ऐसा स्तूप था, जिसके विषय में ईसवी सन् के प्रारंभ तक यह मान्यता थी, कि उसका निर्माण सातवें तीर्थंकर के समय में देवों द्वारा हुआ था और पुनर्निर्माण तेइसवें तीर्थंकर के समय में किया गया था। यह