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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 167
योगदान रहा है। लेकिन इसी गुरु-शिष्य परम्परा की एकाधिकारता के कारण ही वर्तमान समय में अधिकांश आगमिक श्रुतज्ञान का लोप हो गया, क्योंकि जैन दर्शन में गुरु अपने शिष्य को पात्रता के आधार पर वाचना के रूप में ज्ञान प्रदान करते हैं। प्रथम तो कठोर आचार चर्या पालन करने के लिए दीक्षित होने वाले संत कम होते हैं, उनमें भी पर्याप्त बौद्धिक एवं आत्मिक क्षमता को धारण करने वाले शिष्य तो बिरले ही मिलते हैं। ऐसी अवस्था में गुरु द्वारा दिया जाने वाला आगमिक ज्ञान धीरे-धीरे सीमित होने लगा। शिष्यों में ज्ञान धारण करने की पात्रता के अभाव में गुरु अपना आगत ज्ञान अपने तक ही सीमित रखने लगे। फलतः उनके साथ-साथ ज्यों-ज्यों ज्ञान का लोप हो गया।
लेखन कला का प्रचलन न होने से तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित ज्ञान किसी भी रूप में अपने प्रारंभिक स्वरूप में तो लिखा ही नहीं गया। बहुत समय बाद जब बड़े आचार्यों को यह अहसास हुआ, कि आगमिक ज्ञान का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है, तब उन्होंने मिलकर अवशिष्ट उपलब्ध ज्ञान को लिखित रूप से संकलित एवं संग्रहित करने का प्रयास किया। उसी प्रयास की बदौलत आज तक कुछ आगमिक ज्ञान हमारे समक्ष उपलब्ध रह पाया है। लेखन की प्रक्रिया में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जैन दर्शन का प्रारंभिक एवं मौलिक लेखन मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में हुआ। बाद में वैदिक शास्त्रों के संपर्क से उनकी अनुकृति करते हुए संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। राजनैतिक व्यवस्था एवं जैन दर्शन :
राज्य व्यवस्था का विकास : मानव सभ्यता के प्रारम्भ में कोई सुव्यवस्थित राज्य व्यवस्था नहीं थी। प्रारम्भ में कुलकर व्यवस्था थी। नाभिराज अन्तिम कुलकर थे। जब उनके नेतृत्व में धिक्कार नीति का उल्लंघन होने लगा, तब घबराकर युगलिक उनके पुत्र श्री ऋषभदेवजी के पास पहुंचे और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। ऋषभदेवजी ने कहा - जो मर्यादाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं, उन्हें दण्ड मिलना चाहिये और यह व्यवस्था राजा ही कर सकता है, क्योंकि शक्ति के सारे स्रोत उनमें केन्द्रित होते हैं। समय के पारखी कुलकर नाभि ने युगलिकों की विनम्र प्रार्थना पर ऋषभदेवजी का राज्याभिषेक करके उन्हें राजा घोषित किया। ऋषभदेवजी प्रथम राजा बने और शेष जनता प्रजा। इस प्रकार पूर्व से चली आ रही कुलकर व्यवस्था का स्थान नवीन राज्य व्यवस्था ने ले लिया।
राजा बनने के पश्चात् ऋषभदेवजी ने राज्य की सुव्यवस्था हेतु आरक्षक दल की स्थापना की, जिसके अधिकारी 'उग्र' कहलाए। मंत्रिमंडल बनाया, जिसके अधिकारी ‘भोग' नाम से जाने गए। सम्राट के समीपस्थ जन जो परामर्श प्रदाता थे, वे 'राजन्य' के नाम से प्रसिद्ध हुए और अन्य कर्मचारी 'क्षत्रिय' नाम से विश्रुत हुए।"