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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 173
का भरण पोषण होता था। इस संयुक्त परिवार प्रणाली का फल यह था, कि अनेक स्थानों पर होने वाला व्यय भार एक ही जगह होता था, जिससे आर्थिक बचत होती थी। संयुक्त परिवार में श्रम विभाजन में भी सुविधा होती थी, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति तो सबल होती ही थी, सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त होती थी। कृषि के क्षेत्र में संयुक्त परिवार की अधिक उपयोगिता थी। आज जिस चकबन्दी की व्यवस्था के लिए प्रयास किया जा रहा है, वह चकबन्दी संयुक्त परिवार में स्वतः ही सम्पादित हो जाती थी। खेतों का इतना अधिक उपविभाजन नहीं हुआ था, जिससे कृषि व्यवस्था पर प्रभाव पड़े। एक व्यक्ति की प्रमुखता के कारण अनुशासन के साथ आर्थिक सुरक्षा एवं आर्थिक सबलता भी सम्पादित थी। सदस्यों में पारस्परिक असन्तोष और मनमुटाव न होने के कारण सहकारिता की भावना प्रमुख रूप में रहती थी, जिससे कृषि और उद्योग के कार्यों में सफलता प्राप्त होती थी।
प्रारम्भ से ही भारत का आर्थिक संगठन ग्रामों पर निर्भर था। बड़े गाँव में पाँच सौ और छोटे गाँव में कम से कम सौ घर होते थे। कृषक काफी समृद्ध होते थे। कृषकों के साथ दुकानदार, नाई, दर्जी, धोबी, लोहार, चमार, वैद्य, पण्डित आदि सभी प्रकार के व्यक्ति निवास करते थे। ये सभी पेशेवर व्यक्ति अपने-अपने पेशे के अनुसार कार्य कर गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। गाँवों में धान के खेत सदैव लहलहाते रहते थे। पशुओं के लिए घास और उनके पीने के लिए जल की भी कमी नहीं रहती थी। गाँव की प्रधान आवश्यकताएँ निम्नलिखित थी -
1. पेयजल। 2. अन्न उत्पादन। 3. घास और भूसे के उत्पादन। 4. जीवनोपयोगी वस्त्र एवं गुड़, मसाला आदि उपयोगी पदार्थों के व्यवसाय। 5. पशुपालन।
प्राचीन ग्राम्य व्यवस्था के सन्दर्भ में उल्लिखित है, कि गाँवों में उपभोग योग्य ये समस्त वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती थी। अतः ग्राम्य जीवन पर्याप्त सम्पन्न, आत्मनिर्भर, सहयोगी और जनतन्त्रीय था। उस समय गाँवों में आत्मनिर्भरता का एक प्रमुख कारण यह था कि उस काल में आवागमन के साधन अत्यधिक सीमित थे। ग्रामीण समस्याओं एवं कार्यों का प्रबन्धन ग्राम के प्रधान के द्वारा होता था।
पशुपालन की प्रथा होने से दूध दही आदि पदार्थ तो उपलब्ध होते ही थे और साथ ही ऊन की प्राप्ति भी होती थी, जिससे ऊनी कपड़े, कम्बल आदि गाँवों में तैयार किये जाते थे। कपास की खेती प्रायः प्रत्येक गाँव में होती थी, जिससे वस्त्र सम्बन्धी आत्म निर्भरता भी आदिपुराण के गाँवों में विद्यमान थी।
इक्षुरस का उपयोग कई रूपों में किया जाता था। गुड़, राब आदि स्वादिष्ट पदार्थ बनते ही थे, पर खीर भी इक्षुरस से बनायी जाती थी। अतः प्रत्येक गाँव का
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