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84 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
भी जैन आगम हैं, जो पार्श्व कालीनश्रुत माने जाते हैं, लेकिन वे वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, लुप्तप्राय हो गये हैं।
जीवन-परिचय : भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश में कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ थे। उनकी त्रिशला नाम की रानी थी। एक बार आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र में रात्रि के चौथे प्रहर में चौदह स्वप्न देखे। तीर्थंकर प्रभु के जीव ने तभी माता के गर्भ में प्रवेश किया। नौवाँ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अर्यमा नामक शुभ योग में प्रभु का जन्म हुआ। देवेन्द्रों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उनका अभिषेक किया और उनका नाम श्री वर्धमान रखा।
यहाँ एक बात उल्लेखनीय है, कि श्वेताम्बर आगमों में यह माना गया है, कि भगवान महावीर का जीव पहले तीन माह तक देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में रहा। उसके पश्चात हरिणगमेशी देव ने गर्भापहरण करके उसे माता त्रिशला की कुक्षि में स्थापित किया। इसका कारण यह बताया गया, कि तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में ही होता है।
श्री वर्धमान की देह की कांति सुवर्ण के समान थी और ऊँचाई सात हाथ की थी। उनकी आयु बहत्तर वर्ष की थी। उनकी दीक्षा पर्याय बयालीस वर्ष की थी। तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ और महावीर के निर्वाण का अन्तरकाल दो सौ पचास वर्ष था।
एक बार वर्द्धमान बाल्यकाल में अपने मित्रों के साथ खेल रहे थे। कुमार वर्द्धमान पेड़ पर चढ़े हुए थे, तभी एक भयंकर नाग उस पेड़ पर आ गया। सभी बालक डर कर भागने लगे, लेकिन वर्द्धमान उस पर चढ़कर क्रीड़ा करने लगे। तभी से उनका नाम महावीर पड गया।
तीस वर्षों तक कुमार काल व्यतीत करने के पश्चात आत्मज्ञान होने से महावीर चन्द्रप्रभा नाम की पालकी में बैठकर पाण्डव वन में गये। वहाँ तेले का नियम लेकर उन्होंने मिगसर वदी दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में संध्या के समय संयम धारण किया।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहूँगी, कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में वासुपूज्य, मल्ली, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर इन पाँचों तीर्थंकरों को 'कुमार प्रव्रजित' कहा है। दिगम्बर आम्नाय में तो कुमार का अर्थ, अकृत राज्याभिषेक एवं अविवाहित दोनों ही स्वीकार किया गया है। लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में कुमार शब्द से सिर्फ आकृत राज्य का अर्थ किया गया है। अतः वे मानते हैं कि महावीर का विवाह यशोधरा से हुआ तथ प्रियदर्शिनी नाम की एक पुत्री भी हुई। विवाह के डेढ़ वर्ष पश्चात् उन्होंने संयम धारण किया।
केवल ज्ञान : दीक्षा अंगीकार करते ही महावीर को चौथा मनः पर्ययज्ञान हो