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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता* 81
भगवती सूत्र, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन आदि आगमों में ऐसे अनेक पार्श्वपत्य श्रमणों का वर्णन आया है, जो चार याम को छोड़कर महावीर के पंचमहाव्रत रूप धर्म को स्वीकार करते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है, कि महावीर के पूर्व चतुर्याम धर्म को मानने वाला भगवान पार्श्व का निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय विद्यमान था।
__ इस प्रकार बुद्ध और उपनिषदों से पूर्व में पार्श्वनाथ जी की परम्परा विद्यमान थी। यह भी माना जाता है, कि यूनान के महान् दार्शनिक पाइथागोरस भारत आए थे और भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों के सम्पर्क में रहे। उन्होंने उन श्रमणों से आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म आदि जैन सिद्धान्तों का अध्ययन किया और फिर वे विचार उन्होंने यूनान की जनता में प्रसारित किए। उन्होंने मांसाहार का विराध किया। कितनी ही वनस्पतियों का भक्षण भी धार्मिक दृष्टि से त्याज्य बतलाया। उन्होंने पुनर्जन्म को सिद्ध किया।
उपर्युक्त विविध सन्दर्भो के परिप्रेक्ष्य में यह प्रमाणित हो जाता है, कि भगवान पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक महापुरुष थे, जिनका विभिन्न दर्शनों एवं लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में जितने मंत्र एवं स्तोत्र उपलब्ध होते हैं, उतने वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से किसी के भी नहीं है। पार्श्वनाथ भगवान के काव्य, महाकाव्य, चरित्र एवं मन्दिरों की सर्वाधिक संख्या है।
___ उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर यह ज्ञात होता है, कि भगवान पार्श्वनाथ ने केवलज्ञान के पश्चात सुदूर प्रदेशों में विहार एवं धर्म प्रचार किया था। काशी-कौशल से नेपाल तक प्रभु का विहार हुआ। पार्श्वनाथ जी ने कुरु, काशी, कौशल, अवन्ति, पौण्ड्र, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, लाट, द्रविड़, कच्छ, काश्मीर, शाक, पल्लव, वत्स और आभीर आदि विभिन्न क्षेत्रों में विहार किया। दक्षिण कर्नाटक, कोंकण, पल्लव और द्रविड़ आदि उस समय अनार्य क्षेत्र माने जाते थे। शाक भी अनार्य देश था। शाक्य भूमि नेपाल की उपत्यका में है, वहाँ भी पार्श्व के अनुयायी थे। महात्माबुद्ध के काका स्वयं भगवान पार्श्वनाथ के श्रावक थे। जो शाक्यदेश में भगवान के विहार होने से ही संभव हो सकता है।
इस प्रकार आर्य एवं अनार्य दोनों ही क्षेत्रों में पार्श्वनाथ जी के विहार हुए और दोनों ही जातियों पर उनका प्रभाव था। वे सभी उनके परम भक्त थे, अतः पार्श्वनाथ भगवान को 'पुरिसादरणीय' कहा जाने लगा। भगवान महावीर ने भी उनके लिए इस विशेषण का प्रयोग अनेक स्थानों पर किया है। आगमों में अन्य सभी तीर्थंकरों के लिए 'अरहा' विशेषण का ही उल्लेख मिलता है। केवल पार्श्वनाथजी का परिचय देते हुए लिखा गया है, कि 'पासेणं अरहा पुरिसादाणीए, पासस्सणं अरहओ पुरिसादाणि