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70 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
उत्तर पुराण के अनुसार 100 वर्ष व्यतीत होने के पश्चात मल्लिनाथ जी ने पूरे नगर में अपने विवाह की तैयारियाँ देखी, तब उन्हें अपने पूर्व भव का आत्मज्ञान हो गया और दीक्षा के लिए उद्यत हुए । कुमार अवस्था में ही विषयों का त्याग करके वैराग्य मार्ग पर चल पड़े । मल्लीनाथ जी जयन्त नाम की पालकी में बैठकर श्वेतवन में गए। वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर मिगसरसुदी एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान हो गया ।298
सभी श्वेताम्बर आगमों में चूँकि मल्लिनाथ जी को स्त्री स्वीकार किया गया है। अतः मल्ली कुमारी के वैराग्य तथा दीक्षा के संदर्भ में भी पृथक् कथानक प्रचलित है। यह कथानक इस प्रकार है, कि मिथिला की राजकुमारी मल्ली अतीव सुन्दर थी । उसके कौमार्य लावण्य की प्रशंसा दूर-दूर तक फैल गयी । अतः कुछ पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर छहों दिशाओं से विवाह के प्रस्ताव आए, जिन्हें उनके पिता महाराज कुम्भ ने अस्वीकार कर दिया, फलस्वरूप उन छहों ने मिलकर मिथिला पर आक्रमण करने के लिए युद्ध का संदेश भिजवा दिया । तथा मिथिला नरेश चिन्तित हो गए । उन्हें चिन्ताग्रस्त देखकर राजकुमारी मल्ली ने अपने पिता को आश्वासन देते हुए कहा, कि आप निश्चित हो जाइये। उन छहों राजाओं को मैं समझा दूँगी। आप सिर्फ उन्हें पृथक्-पृथक् मिथिला नगर में आने का संदेश भेजें और उन्हें रात्रि के अंधेरे में बुलाकर पृथक्-पृथक् ठहरा देवें । इस बीच मल्लीकुमारी ने राजउद्यान के मध्य एक भवन बनवाया, जिसके मध्य में स्वयं की प्रतिकृति स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर रखी, जिसका पीछे से ढक्कन खुलता था । उस महल में छह कक्ष इस प्रकार बनवाए, जिनके अन्दर के झरोखे से वह स्वर्ण प्रतिमा स्पष्ट दिखाई देती, लेकिन उनमें खड़े व्यक्ति एक दूसरे को देख नहीं सकते। उन छहों भवनों में उन छहों राजाओं - पांचाल नरेश जीतशत्रु, कुरुराज अदीनशत्रु, काशीपति महाराज शंख, कुणाल नरेश रुप्पी, कलाधीश प्रतिबुद्धि और चम्पानरेश चन्द्रछाग को पृथक्-पृथक् ठहरा दिया गया।
सूर्योदय होते ही मोहन घर के झरोखों में से उन राजाओं ने मल्लीकुमारी की स्वर्ण मण्डित उस प्रतिमा को देखा और मुग्ध हो गए। मल्लीकुमारी प्रतिमा के ढक्कन में से प्रतिदिन एक माह तक अपने भोजन का एक-एक ग्रास डालती थी, अतः उसके अन्दर वह अन्न सड़ गया। जब सभी राजा उस प्रतिमा को निहार रहे थे, तभी राजकुमारी मल्ली ने उस प्रतिमा का ढक्कन खोल दिया, जिससे चारों ओर का वातावरण तीव्र दुस्सह्य दुर्गन्ध से पूरित हो गया, अतः सभी ने अपने-अपने उत्तरीय से नाक ढ़ककर मुख मोड़ लिए। तब भगवती मल्ली ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहाहे देवानुप्रिय ! इस कनकमयी पुतली में अतिस्वादिष्ट एवं मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का एक - एक ग्रास डाला जाता रहा है। मेरी इस
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