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72* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
छद्मस्थ काल सबसे कम अर्थात् एक प्रहर से कुछ अधिक या डेढ़ प्रहर तक ही रहा। मल्लिनाथ जी ने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की, उसी दिन उन्हें केवल ज्ञान हो गया।
उत्तर पुराण में यह उल्लेख मिलता है, कि मल्लिनाथजी छह दिन तक छद्मस्थ अवस्था में रहे, तब उन्हें अशोक वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान हुआ।
धर्म-परिवार : भगवान मल्लिनाथ के अतिरिक्त ऋषभादि तेईस तीर्थंकरों के एक ही प्रकार की परिषद् थी लेकिन तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के साध्वियों की आभ्यान्तर परिषद् और साधुओं की बाह्य परिषद् इस प्रकार दो प्रकार की परिषदें
थीं।
तीर्थंकर मल्लिनाथ जी ने केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध संघ की स्थापना की। उनके समवशरण में विशाख आदि अट्ठाईस गणधर थे, पाँच सौ पचास पूर्वधारी थे, उनतीस हजार शिक्षक थे, दो हजार दो सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, एक हजार चार सौ वादी थे, दो हजार नौ सौ विक्रिया ऋद्धिधारी थे। एक हजार सात सौ पचास मनःपर्ययज्ञानी थे। सब मिलाकर चालीस हजार मुनि उनके सान्निध्य में थे। बन्धुषेणा आदि पचपन हजार आर्यिकाएँ थीं। एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। असंख्यात देव देवियाँ और सिंह आदि संख्यात तिर्यंच थे। इनके शासन में सातवें दत्त नारायण व नन्दिमित्र बलदेव हुए।24
मोक्ष : तीर्थंकर मल्लिनाथ जी चौपन हजार नौ सौ वर्ष तक धर्म का उद्योत करते हुए विचरण करते रहे। जब उनकी आयु का एक माह शेष रहा, तो वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे। वहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया और फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में मोक्षगामी हुए। 20. श्री मुनिसुव्रत जी:
भरतक्षेत्र मगध देश में राजगृह नाम का नगर था। उसमें हरिवंश शिरोमणि सुमित्र नाम का राजा राज्य करता था। वह काश्यप गौत्री था। उनकी रानी का नाम सोमा था। एक बार श्रावण कृष्ण द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र में महारानी सोमादेवी ने चौदह स्वप्न देखे और मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। इसी समय तीर्थंकर देव के जीव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। नवमाह पूर्ण होने पर प्रभु का जन्म हुआ। देवों ने जन्माभिषेक करके मुनिसुव्रत नामकरण किया। ज्येष्ठ कृष्णा नवमी को प्रभु का जन्म हुआ।
मुनिसुव्रतस्वामी की देह की कांति कृष्णवर्ण की थी। उनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी। उनकी ऊँचाई बीस धनुष की थी। प्रभु की दीक्षा पर्याय साढ़े सात हजार वर्ष की थी। तीर्थंकर मल्लीनाथ जी और मुनिसुव्रतनाथ जी के निर्वाण का अन्तरकाल चौवन लाख वर्ष का था।08
मुनिसुव्रतनाथ जी के कुमारकाल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर