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78 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
उग्रसेन की पुत्री राजीमति के साथ उनका विवाह निश्चित कर दिया। उस समय श्री कृष्ण प्रभु नेमिनाथ की बारात लेकर उनके विवाह के लिए प्रस्थान कर गये। मार्ग में नेमिनाथ जी ने एक स्थान पर बाड़े में बन्द भय से व्याकुल हजारों मृगों को देखा, जो करुण स्वर में क्रन्दन कर रहे थे। उन्हें देखकर नेमिनाथ जी ने पूछा, कि इन मूक पशुओं को इस तरह क्यों बन्द किया गया है। तब उत्तर में रक्षकों ने कहा, कि आपके विवाहोत्सव में होने वाले विशाल भोज के लिए इन्हें यहाँ लाया गया है। उन निरीह पशुओं के प्रति करुणा का सागर उमड़ पड़ा और नेमिनाथ जी ने विवाह से इन्कार करके तुरन्त उन पशुओं को मुक्त कराया । अहिंसा के प्रवर्तक प्रभु उसी समय इस क्रूर संसार से विरक्त हो गये । इस प्रकार कुमारकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर नेमिनाथ जी ने सहस्राम्रवन में जाकर तेला का नियम लिया और श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ सयंम धारण किया। 2
केवलज्ञान : श्री नेमिनाथ जी दीक्षा धारण करने के पश्चात् तपस्या करते हुए 56 दिन तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। तब एक दिन वे रेवतक ( गिरनार ) पर्वत पर तेला का नियम लेकर किसी बड़े बाँस के वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ उन्हें आसोज कृष्णा पडिमा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय केवलज्ञान हुआ ।
धर्म परिवार : तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी की धर्मसभा में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर थे, चार सौ श्रुतज्ञानी पूर्वों के जानकार थे, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक थे, पन्द्रह सौ तीन ज्ञान के धारक थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, ग्यारह सौ विक्रिया ऋद्धि धारक थे, नौ सौ मनः पर्ययज्ञानी थे और आठ सौ वादी थे । इस प्रकर सब मिलाकर उनके अठारह हजार मुनिराज थे । राजीमती, यक्षी आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं । असंख्यात देव - देवियाँ थी संख्यात तिर्यंच थे। 34
निर्वाण : श्री नेमिनाथ जी ने केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् छह सौ निन्यानवे वर्ष नौ महीने और चार दिन तक विहार करते हुए धर्म प्रचार किया । फिर विहार छोड़कर पाँच सौ तैंतीस मुनियों के साथ एक महीने तक योग निरोध करके आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारम्भ में ही चार अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया। तब देवों ने आकर पंचम मोक्ष कल्याणक की पूजा की।
तीर्थंकर नेमिनाथ जी के तीर्थकाल में ही पद्म नामक बलभद्र, श्री कृष्ण वासुदेव व अर्ध चक्रवर्ती हुए, ब्रह्मदत्त नामक बारहवें सकल चक्रवर्ती हुए तथा जरासन्ध नामक प्रतिनारायण हुए। "