________________ xxviji सिद्ध अनादि-अनन्त। (झ) सिद्धों का निवास स्थानः ऊर्ध्वगति के कारण - (1) पूर्व संस्कार, (2) कर्मसंगरहित हो जाना, (3) बंध का नाश हो जाना, (4) ऊर्ध्वगमन का स्वभाव / (ञ) सिद्धशिलाः (अ) सिद्धशिला बैकुण्ठ परमधाम, (आ)सिद्धक्षेत्र की स्थिति। (ट) विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना : (1) पुरुषलिंगी जैन साधु में सिद्ध होने की सर्वाधिक योग्यता, मनुष्य गति में ही मुक्ति-लाभ, एक समय में सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या / (ठ) सिद्धों के प्रकार : (1) तीर्थंसिद्ध, (2) अतीर्थसिद्ध, (3) तीर्थंकर सिद्ध, (4) अतीर्थंकर सिद्ध, (5) स्वयंबुद्ध सिद्ध, (6) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, (7) बुद्धबोधित सिद्ध, (E) स्त्रीलिंग सिद्ध, (6) पुरुषलिंग सिद्ध, (10) नपुंसकलिंग सिद्ध, (11) स्वलिंग सिद्ध, (12) अन्यलिंग सिद्ध, (13) गृहिलिंग सिद्ध, (14) एकसिद्ध, (15) अनेक सिद्ध / (ड) सिद्ध-भक्तिः (अ) परम ऐश्वर्य-प्राप्ति एवं पाप-मुक्ति, (आ) रत्नत्रय की प्राप्ति / (ढ) अरहन्त और सिद्ध में भेद-अभेद : (न (अ) अभिन्नत्व, (आ) भिन्नत्व। (ण) अरहन्तों के पूज्य सिद्धः चतुर्थ परिच्छेद :: आचार्य परमेष्ठी 100-145 (क) गुरूः आचार्य भारतीय संस्कृति में -तीर्थंकर तुल्य गुरू, धर्मप्रदीप गुरू, यथार्थ धर्मगुरूः आचार्य / (ख) आचार्य पद की व्युत्पत्तिलभ्य व्याख्या-चतुदर्शविद्यापारगामी आचार्य, साक्षात् जिनबिम्ब आचार्य, संग्रहानुग्रही आचार्य, दुर्धर्ष एवं अगाधगुण-सम्पन्न आचार्य, शूरवीर एवं धर्म प्रभावक आचार्य, क्षमा सम्पन्न आचार्य, आचार्य के पयार्यवाची शब्द / (ग) आचार्य के छत्तीस गुण-श्वेताम्बर परम्पराः