________________ उपाध्याय परमेष्ठी 163 (3) आर्जव : मन, वचन और काय से माया अर्थात् छल-कपट का त्याग कर देना आर्जव धर्म है।' (4) शौच : धर्म के साधनों तथा शरीर तक में भी आसक्ति न रखना-ऐसी निर्लोभता ही शौच है। (5) सत्य : हितकारी व यथार्थ वचन बोलना ही सत्य है। जैन शास्त्रों में कहे हुए आचार को पालने में असमर्थ होते हुए भी जिनवचन का ही कथन करना तथा व्यवहार में भीझूठ न बोलना यथार्थ सत्य धर्म है। (6) संयम : छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना और इन्द्रियों के विषयों को छोड़ देना संयम कहलाता है। (7) तप : उपार्जित कर्मों के क्षय के लिए आत्मदमन रूप बारह प्रकार के तपों का करना तप नामक धर्म है। (8) त्याग : पात्र को ज्ञानादि सद्गुण प्रदान करना ही त्याग कहलाता है। (6) आकिञ्चन्यः पर पदार्थों में यहाँ तक कि अपने शरीर में भी 'ममेदं' या मोह का त्याग कर देना आकिञ्चन्य धर्म है।" (10) ब्रह्मचर्य :मन, वचन और काय से स्त्री सेवन का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य है / स्वेच्छाचारपूर्वक प्रवृति को रोकने के लिए गुरुकुल में निवास करने को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं।' (ख) सतरह प्रकार का संयम : समिति एवं गुप्ति का पालन करने वाला मुनिजो प्राणियों और इन्द्रियों 1. मनोवचनकायकर्मणामकौटिल्यमार्जवमभिधीयते। त०१० 6.6, पृ०२८४ 2. उत्कृष्टतासमागतगाद्धर्यपरिहरणं शौचमुच्चयते / वही. पृ२८५ 3. जिवयणमेव मासदि तं पालेदं असक्कमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा०३६८ धर्मोपचयार्थ धर्मोबृहणार्थ समितिषु प्रवर्तमानस्य पुरुषस्य तत्प्रतिपालनार्थ प्राणव्यपरोपणषडिन्द्रियविषयपरिहरणं संयम उच्चते। त०१०६.६, पृ०२८५ 5. उपार्जिकर्मक्षयार्थ तपस्विना तप्यते इति तपः। वही 6. संयमिनां योग्यं ज्ञानसंयमशौचोपकरणादिदानं त्याग उच्चते। त०१० 6.6, पृ० 285 7. नास्ति अस्य किन्चन किमपि अकिन्चनो निष्परिग्रह तस्य भावःकर्म वा आ-आकिञ्चन्यम् / वही पूर्वानुभुक्तवनितास्मरणं वनिताकथास्मरणं वनितासड्.गासक्तस्य शययासनादिकञ्च अब्रह्म तवर्जनात् ब्रह्मचर्य परिपूर्ण भवति / स्वेच्छाचारप्रवृत्तिनिवृत्यर्थ गुरूकुलवासौ वा ब्रह्मचर्यमुच्यते। वही c