________________ साधु परमेष्ठी 213 ये कार्य अन्य समय में भी किए जा सकते हैं / अतः इस विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं है। आचार्य आदि की सेवा के लिए भी कोई निश्चित समय नहीं है, जब आवश्यकता पड़े तभी वह की जा सकती है। शिष्य दिन के प्रारम्भ में ही आचार्य से पूछे-भन्ते, आप मुझे सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं या स्वाध्याय में? इस प्रकार यदिआचार्य आवश्यकता समझे तो सेवा करे या फिर स्वाध्याय करे। इससे स्पष्ट है कि सेवा को अत्याधिक महत्त्व प्राप्त है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि साधु की इस चर्या में धर्मोपदेश जो कि अत्यन्त आवश्यक है, उसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके दो कारण हो सकते हैं-(1) धर्मोपदेश प्रत्येक साधु का कार्य नहीं है। इसलिए साधु की सामान्य चर्या में उसका उल्लेख नहीं है तथा (2) धर्मोपदेश स्वाध्याय का ही एक अंग है / अत एव उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है। ध्यान साधना की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है, इसी से उसके लिए दो प्रहर का समय निश्चित किया गया है जबकि स्वाध्याय के लिए चार प्रहर का समय निश्चित किया है परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय अधिक महत्त्वपूर्ण है। सम्भवतः इसके पीछे मूल कारण यही रहा है कि प्राचीन काल में लिखने की परम्परा नहीं थी। सम्पूर्ण श्रुत कण्ठस्थ ही होता था / अतः यह आवश्यक था किं श्रुतज्ञान की परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए स्वाध्याय पर बल दिया गया है। इस तरह यहां साधु की दैनिक एवं रात्रिक चर्या के साथ जो दस अंगों वाली सामाचारी का वर्णन किया गया है वह सामान्य अपेक्षा से ही है क्योंकि इसमें समयानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है। (ग) बाह्य उपकरण या उपधि : यद्यपि जैन साधु सब प्रकार के परिग्रह से रहित होता है फिर भी जीवन-निर्वाह एवं संयम पालन आदि के लिए वह जिन उपकरणों को धारण करता है उन्हें उपधि या उपकरण कहते हैं। जैन श्वेताम्बर साधु गृहस्थ से प्राप्त वस्त्रआदि को पहनते हैं तथा पात्र आदि कुछ अन्य उपकरण भी अपने पास रखते हैं किन्तु दिगम्बर परम्परा के साधु वस्त्र आदि नहीं पहनते हैं। प्राचीनकाल में दोनों ही प्रथाओं का प्रचलन रहा है। केशि-गौतम गणधर संवाद में भगवान पार्श्वनाथकी परम्परा के शिष्यों 1. दे०उ०२६.६-१० 2. विशेष के लिए दे०-कल्पसूत्र, सामाचारी प्रकरण