Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 262
________________ 226 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी और मार्ग न हो तो साधु पूर्ण सावधानी पूर्वक जाए' अर्थात् इस प्रकार जाए जिससे कि संयम की विराधना न हो। 4. संयमी मुनि सचित रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, भूसै और गोबर के ऊपर से होकर न जाए। इससे अन्दर छिपे हुए छोटे जीवों की हिंसा होने का भय बना रहता है। 5. साधु के लिए यह भी बतलाया गया है कि वह पैरों को उठाकर गिराता हुआ अर्थात् दौड़ता हुआ, तथा बॉलता और हंसता हुआ भी न चले। अतिशीघ्र चलने से ईर्या समिति का पालन नहीं हो पाता तथा बोलते और हंसते हुए चलने से इसके अतिरिक्त प्रवचन लाघव भी होता है। 6. मुनिचलते समय गवाक्ष (आलोक), घर का वह भाग जिसका निर्माण किसी कारणवश पुनः किया गया हो (थिग्गल), दो घरों के बीच की गली अथवा सेन्ध (सन्धि) तथा जलघर कोध्यानपूर्वक नदेखे-ये सब शंका उत्पन्न करने वाले स्थान हैं। इन स्थानों को ध्यानपूर्वक देखने से लोगों को मुनि पर चोर तथा पारदारिक होने का सन्देह हो सकता है। ___ 7.मुनिसंसक्तदृष्टि से नदेखे यह सामान्य कथन है। इसका वाच्यार्थ यह है कि मार्ग में चलते समय साधु व साध्वी क्रमशः स्त्री तथा पुरूष कीआंखों में आंखें गड़ाकर न देखें / इस प्रकार देखने से पहली बात तो यह है कि ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित होता है तथा दूसरे लोग यह आक्षेप कर सकते हैं कि यह साधु विकारग्रस्त है, असाधु है। 8. आहार आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद मुनि अन्दर कहां तक जाए? इस विषय में कहा गया है कि मुनि अतिभूमि (गृहस्थ द्वारा अननुज्ञातभूमि) में न जाए। कुलभूमि (कुल-मर्यादा) को जानकर, मितभूमि' (अनुज्ञात) में प्रवेश करे। इस प्रकार का विधान इसलिए है ताकि 1. वही, 5.194-6 . 2. वही, 5.17 3. वही, 5.1514 4. वही, 5.1715 5 असंसत्तं पलोएज्जा / दश० 5.1.23 6. अतिभूमिं न गच्छेद-अनुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः / वही, हारिभद्रीयवृति, प० 168 7. अइभूमिं न गच्छेज्जा / दश० 5.1.24 8. केवइयाएपुण पविसियव्?.---जत्थ तेसिं गिहत्थाणंअप्पत्तियंनभवइ,जत्थअण्णेविभिक्खायरा ठायति / वही, जिनदासचूर्णि, पृ० 176 6. मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् / वही, हारिभद्रीय वृत्ति, प० 168 10. कुलस्स भूमिंजाणित्ता मियं भूमिं परक्कमे / वही, 5. 1. 24

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