________________ 242 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 3- सल्लेखना की अवधि : सामान्यतौर से सल्लेखना की अधिकतम सीमा 12 वर्ष, न्यून्तम सीमा छह मास तथा मध्यम सीमा एक वर्ष बतलायी गयी हैं परन्तु यह कथन उनकी अपेक्षा से कहा गया प्रतीत होता है जिन्हें अपनी मृत्यु के समय के विषय में जानकारी हो / अन्यथा इसकी न्यूनतम सीमा अन्तर्मुहूर्त तथा मध्यम सीमा उच्चतम तथा न्यूनतम सीमा के बीच कभी भी हो सकती है। 4- सल्लेखना की विधि : सल्लेखना की बारह वर्ष प्रमाण उच्चतम सीमा को ध्यान में रखते हुए इसकी विधि इस प्रकार बतलायी गयी है सर्वप्रथम साधक गुरु के पास जाकर प्रथम चार वर्षों में घी, दूध आदि विकृत पदार्थों का त्याग करे / अगले चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे। तदनन्तर दो वर्ष पर्यन्त क्रमशः एक दिन उपवास और दूसरे दिन नीरस अल्प आहार करे / इसके बाद उसे छह मास पर्यन्त कोई कठिन तप न कर साधारण तप करना चाहिए। फिर छह मास पर्यन्त कठोर तपश्चर्या करके अन्त में नीरसअल्पआहार लेकरअनशनव्रत तोड़ देअर्थात् उसे पारणा करनी चाहिए। बारहवें वर्ष में निरन्तर आचाम्ल (नीरस अल्पाहार) करता हुआ, वह मृत्यु का.एक मास या पन्द्रह दिन शेष जाने पर सब प्रकार के आहार का परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार यह सामान्य अपेक्षासे उत्कृष्ट सल्लेखना की विधि है। इस विधि में आवश्यकतानुसार समय-सम्बन्धी परिवर्तन किया जा सकता है। 5- सल्लेखना के अतिचार : जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्रस्मृति और निदान ये सल्लेखना व्रत के पांच अतिचार बतलाए गए हैं। (क) जीविताशंसा: सल्लेखना धारण कर ऐसी इच्छा रखना कि मैं कुछ समय तक और जीवित रहता तो अच्छा होता यह जीविताशंसा नामक अतिचार है। (ख) मरणाशंसा : क्षुधा-तृषा आदि की पीड़ा होने पर ऐसी इच्छा रखना कि मेरी मृत्यु जल्दी हो जाती तो अच्छा होता, यह मरणाशंसा नामक अतिचार है। 1. बारसेव उ वासाइं संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया।। उ०३६.२५१ 2. दे०-वही, 36.252-55 3. जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः। सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्र समादिष्टाः।। रत्नक० 5.8