Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 282
________________ 246 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (94) जलाशय: हवा चलने पर भी जैसे जलाशय में पानी की सतह सम रहती है, ऊंची-नीची नहीं होती, उसी प्रकार साधु भी समभाव वाला होता है। सम्मान-अपमान इत्यादि में उसके विचारों में उतार-चढ़ाव नहीं आता। (45) दर्पण : स्वच्छ दर्पण जिस प्रकार स्पष्ट बिम्बग्राही होता है, उसी प्रकार साधु भी मायारहित स्वच्छ हृदय होने से शास्त्रों के भावों को पूर्णतया ग्रहण कर लेता है। (16) गन्धहस्ती : जिस प्रकार हाथी युद्ध में अपना प्रबल शौर्य दिखलाता है, उसी तरह साधु भी परीषह सेना के साथ जूझने में अपना आत्मवीर्य प्रकट करता है और विजयी होता है। (97) वृषभः जैसे धोरी बैल उठाए हुए भार को यथास्थान पहुंचाता है, बीच में नहीं छोड़ता, वैसे ही साधु भी ग्रहण किए हुए व्रत, नियम एवं संयम का जीवनपर्यन्त उत्साहपूर्वक निर्वाह करता है। (14) सिंह: जैसे सिंह महापराक्रमी होता है, जंगली जानवर उसे डरा नहीं सकते, उसी प्रकार साधु भी आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न होता है, परीषह उसे पराजित नहीं कर सकते। (99) शारद जल : जिस प्रकार शरद् ऋतु का जल निर्मल होता है, उसी प्रकार साधु का हृदय भी राद्वेष आदि मल से रहित होता है। (20) भारण्ड पक्षी: जैसे भारण्ड पक्षी अहर्निश सावधान रहता है तनिक भी प्रमाद नहीं करता, उसी प्रकार साधु भी सदैव संयम में अप्रमत्त एवं सावधान रहता है। (29) गेंडा: जिस प्रकार गेंडे के मस्तक पर एक ही सींग होता है, उसी प्रकार साधु भी रागद्वेष रहित होने से भाव से एकाकी रहता है। (22) स्थाणु : जैसे स्थाणु(ढूंठ) निश्चलखड़ा रहता है, उसी प्रकार साधुभी कायोत्सर्ग आदि के समय निश्चल खड़ा रहता है।

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