________________ 252 जैन दर्शन मे पञ्च परमेष्ठी आचार्य व उपाध्याय दोनों ही प्रतिष्ठित पद हैं | आचार्य बत्तीस गुणों से और उपाध्याय पच्चीस गुणों से सम्पन्न होते हैं |धर्मगुरु आचार्य वर्तमान में तीर्थंकर तुल्य होते हैं | धर्म की मर्यादा बनाए रखना उनका प्रमुख कार्य है। पञ्चेन्द्रियों को वश में करने वाले, नव ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के धारक, क्रोध आदि पंचाचारों के पालन में समर्थ, पांच समिति एवं तीन गुप्तियों के गारक आचार्य अपनी श्रुत आदि अष्टसम्पदाओं से श्रमण - संघ की शोभा बढ़ाते हैं / प्रकृष्टज्ञानी श्रुतगुरु उपाध्याय अज्ञानरूपी अन्धकार में भटके हुए सत्त्वों को ज्ञान-प्रदीप-प्रकाश प्रदान करते हैं / उपाध्याय द्वादशांग के अध्येता और ज्ञानदाता होते हैं / वे करण-चरण सप्तति व रत्नत्रय से सम्पन्न तथा आठ प्रकार की प्रभावना को बढ़ाने वाले होते हैं / ऐसे पच्चीस गुणों के धारी उपाध याय गुरु को आगम में शंख,काम्बोजाश्व, वृद्धहस्ती,धौरेय वृषभ आदि उपमाओं से विभूषित करते हुए उनके स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला गया है। अरहन्त के लिए साधु होना परमावश्यक है / साधुत्व ही अर्हत्त्वलाभ की पात्रता को प्रगट करता है / साधुत्व धारण करने पर साधक को पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, पञ्चेन्द्रियनिग्रह, षडावश्यक आदि जिसमें प्रमुख हैं ऐसे सत्ताईस नियमों का निर्दोष पालन करना होता है / जो उनके गुणों के नाम से जाने जाते हैं / साधु के आचरण में सामाचारी, उपकरण, भिक्षाचर्या एवं उसकी कठोर तपश्चर्या का भी विशेष महत्त्व है / वाङ्मय में साधु को कांस्यपात्र, शंख, कच्छप, स्वर्ण, कमलपत्र आदि इकतीस उपमाएं देकर उसके गुणों एवं स्वरूप को समुचित रूप से स्पष्ट किया गया है / जैन आचार्य, उपध्याय एवं साधु के प्रति की गई अर्चा-पूजा एवं वैयावृत्त्य महान् फल प्रदान करने वाली होती है इनके प्रति समभाव से की गई भक्ति तीर्थंकरत्व की उपलब्धि में मूलहेतु है / इस तरह पञ्च परमेष्ठी का संकीर्तन करने से सत्त्व को मानसिक शुद्धि तो प्राप्त होती है साथ ही उसके जीवन में एक विचित्र परिर्वतन भी होता है / सदाचरण के परिणाम स्वरूप उसकी कर्मग्रन्थी भंग हो जाती है जिससे वह भेदविज्ञानी बन जाता है / एकमात्र ज्ञान केवलज्ञान>सर्वज्ञत्व अर्हत्त्व>की उपलब्धि ही भव्य सत्त्व का उद्देश्य जो है / 0-0-0