________________ उपसंहार 251 पर अर्हत्त्व की उपलब्धि होती है |अर्हत्त्वलाभ ही प्राणिमात्र का लक्ष्य है / यह प्रारम्भिक बौद्धानुयायी स्थविरों की मान्यता है किन्तु महायान दर्शन में बोधि सत्त्वसम्यग्सम्बोधिप्राप्त करने का प्रणिधान करता है और सम्बोधि लाभ के होते ही वह कृतकृत्य हो जाता है तथा जन्म, जरा और मरणरूप भक्चक्र से सदैव के लिए छूट जाता है / जैन वाङ्मय में अरहन्त के लिए अरिहन्त, अरह, अरहो, अरुह तथा अरुहन्त आदि शब्दों का प्रयोग भी मिलता है | आत्मकल्याण में निरत भव्य साधक तप-साधना के द्वारा गुणघातक-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का विप्रणाश करता है और आध्यात्मिक विकास के तेरहवें गुणस्थान में आते ही कैवल्य को उपलब्ध कर लेता है / कैवल्य ही सर्वज्ञत्व हैं / इसी को योगकेवली भी कहा जाता है / वीतरागी तीर्थंकर देव जैनों के अनुसार 24 माने गए हैं जो अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय, अशोक वृक्ष आदि अष्टमहाप्रातिहार्य तथा चौंतीसअतिशय इस प्रकार छयालीस गुणों से सम्पन्न होते हैं / इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके पंचकल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं / तीर्थंकर के लिए इन्द्र समवसरण की भी रचना करता है | इस समवसरण में सम्पूर्ण जगत् के चराचर प्राणीअरहन्ततीर्थंकर के दिव्यध्वनि रूप सद्धर्मामृत का पान करते हैं। अरहन्त केवली के योग का अभाव होते ही अयोगकेवली अवस्था प्रगट हो जाती है / इस निराकार अवस्था को सिद्ध कहा जाता है / सिद्ध अष्टकर्मरूपी ईधन को जलाकर भस्म करने वाले होते हैं / वे क्षयिक सम्यक्त्व और क्षायिक ज्ञान से सम्पन्न परमेष्ठी समस्त पापकर्मों से विरहित होते हैं / ये शिव, अचल, अरुज,अनन्त, अक्षय,अव्याबाध रूप सिद्ध अनन्तचतुष्टय से ओत-प्रोत रहते हुए लोक के अग्रभाग 'सिद्धशिला' पर स्थित रहते हैं / ऐसे इन सिद्धों को अरहन्त भी नमन करते हैं- ओम नमः सिद्धेभ्यः / अतः सर्व-पूज्य तो सिद्ध होते ही हैं किन्तु भव्य जीवों के लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शक होने से अरहन्त को प्रधानता दी गई है। जैनदर्शनकी मान्यतानुसार पृथ्वीलोकपरअवसर्पिणी का पञ्चमकाल दुष्षमा चल रहा है और अरहन्त इससे पूर्व दुषमा-सुषमा नामक चतुर्थकाल में ही होते हैं / वर्तमान में अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का तीर्थकाल चल रहा है और श्रमण संघ ही उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है / जैन श्रमण संघ के अधिपति आचार्य, गुरु उपाध्याय और साधु ये तीन प्रमुख अंग हैं / साधु ही तप, साधना और ज्ञान में अध्यात्म विकास कर क्रमशः उपाध याय और आचार्य बनते हैं /