________________ साधु परमेष्ठी 249 पूजा वास्तव में जिन-वचनों की ही पूजा है, और इससे प्रत्यक्ष में जिन भगवान की ही पूजा की गई है-ऐसा समझना चाहिए : सम्प्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि : तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगर्दद्योतिकाः। सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तासां समालम्बनं तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः।।' आचार्य पुनः कहते हैं कि जो जैन मुनि ज्ञान-दर्शन स्वरूप चैतन्यमय आत्मा में उत्कृष्ट स्नेह रखते हैं, उनके चरणकमलों द्वारा जहां पृथ्वी का स्पर्श किया जाता है वहीं पर पृथ्वी उत्तमतीर्थं बन जाती है, उन्हें हाथ जोड़कर देवभी नित्य नमस्कार करते हैं, तथा उनके नाम के स्मरण मात्र से ही जनसमूह पाप से परे हो जाता है। उपर्युक्त वर्णन से यह विदित होता है कि साधु परमेष्ठी परम आदरणीय एवं वन्दनीय हैं। वे संयम-मार्ग का उपदेश देते हैं / संयम की साधना से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है जो कि मनुष्य का चरम लक्ष्य है। नमस्कार-मन्त्र में जो पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है उनमें मूलतः साधु पद ही है, शेष सब उसके ही विकसित रूप हैं। ... 1. वही, 1.68 2. स्पृष्टा यत्र मही तदधिकमलैस्तौति तत्तीर्थतां तेभ्यस्तेऽपि सुराः कृताञ्जलिपुटा नित्यं नमस्कुर्वते। तन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि जनता निष्कल्मषा जायते ये जैना यतयश्चिदात्मनि परं स्नेहं समातन्वते।। पद्मनन्दि पंचविंशति, श्लोक 1.66