________________ उपसंहार आत्मा को आच्छादित करने वाले अष्टकर्मों में प्रबल एवं गुणघातक मोह ही सर्वप्रधान है ।इसका प्रहाण करने के लिए हीजैनदर्शन में पञ्च परमेष्ठी अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु के स्वरूप का स्मरण, चिन्तन एवं मनन करने पर अधिक बल दिया गया है / परमेष्ठी की शरण में जाने से उनकी स्मृति एवं चिन्तन से रागद्वेषमय प्रवृत्रि अवरुद्ध हो जाती है, पुरुषार्थ की वृद्धि होने लगती है और आत्मा में रत्नत्रयगुण-सम्यग्दर्शन - ज्ञान व चारित्र, आविर्भूत हो जाते हैं। परमेष्ठी की अर्चना-भक्ति किसी अन्य परमात्मा अथवा शक्ति विशेष की आराधना नहीं है,प्रत्युत वह अपनीआत्माकीही उपासना करना है / ज्ञान-दर्शन में अखण्ड चैतन्य आत्मा के स्वरूप का अनुभव कर अपने अखण्ड साधक स्वभाव की उपलब्धि ही भव्य सत्त्व का परम लक्ष्य है / परमेष्ठी के स्मरण एवं स्तवन में इतनी बड़ी शक्ति है कि इसके साक्षात्कार होते ही सम्यक्त्व और केवलज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं / निश्चयनय की अपेक्षा सम्यक्त्व और कैवल्य आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं कारण कि ये आत्मा के स्वभाव हैं / परमेष्ठी उससे भिन्न नहीं हैं, स्वयं आत्मस्वरूप हैं / इस तरह आत्मा स्वकल्याण में अथवा स्वयं परमेष्ठी बनने में स्वयमेव उपादान और निमित्त कारण है / विशद एवं विशुद्ध आत्मा परमात्मा, परमज्योति ही परमेष्ठी हैं / प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में इन्हीं पञ्च परमेष्ठियों के स्वरूप को अध्ययन का विषय बनाया गया है। जैन दर्शन में अरहन्त की कल्पना प्राक्-वैदिक है | भव्य-जीव किसी जन्म में तीर्थंकर बनने का प्रणिधान करता है और वही साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर भविष्य में अरहन्त तीर्थकर बन जाता है / जिन, केवली और सर्वज्ञ भी यही कहलाता है। बौद्धदर्शन में भी अरहन्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है / यहां अर्हत्त्व और निर्वाण में कोई भेद नहीं है / बौद्धों के अनुसार रागद्वेष एवं मोह आदि के क्षीण हो जाने 1. यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो इदं वुच्चति अरहन्तं / सं०नि० 3.252 ___ यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो इदं वुच्चति निब्बानं / वही, 3.251