________________ साधु परमेष्ठी 243 (ग) भय': इहलोक भय और परलोक भय की अपेक्षा भय के दो भेद हैं। मैंने सल्लेखना ग्रहण की तो है, परन्तु मुझे क्षुधा, तृषा आदि की पीड़ा कहीं अधिक समय तक सहन न करनी पड़े,इस प्रकार काभय होनाइहलोकभय कहलाता है, और इस प्रकार के कठिन अनुष्ठान के करने से परलोक में विशिष्ट फल प्राप्त होगा या नहीं, ऐसा भाव रखना परलोक भय है। (घ) मित्रस्मृति बाल्यादिअवस्थाओं में जिनके साथ क्रीडाकीथी, ऐसे मित्रों का बारम्बार स्मरण करना मित्रस्मृति नामक अतिचार कहा जाता है। (ङ) निदान : मरने के बाद परलोक में विषय भोगों की आकांक्षा करना निदान नामक अतिचार है।' . उपर्युक्त पांच अतिचारों के अतिरिक्त आगम में पांच प्रकार की अशुभ भावनाएं भी बतलायी गयी हैं जिनके रहने पर जीव सल्लेखना के फल को प्राप्त नहीं कर पाता / ये पांच अशुभ भावनाएं हैं(क) कन्दर्प भावना : हास्योत्पादक कुचेष्टा आदि करना तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को हंसाना। (ख) अभियोग भावना: सुख, रस और समृद्धि के लिए तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करना। (ग) किल्विषिकी भावना: ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं की निन्दा करना। (घ) मोह भावना : शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, अग्निप्रवेश, जलप्रवेश तथा निषिद्ध वस्तुओं का सेवन करना। (ङ) आसुरी भावना: निरन्तर क्रोध करना तथा शुभाशुभ फलों का कथन करना। उपर्युक्त पांच अतिचारों तथा पांच प्रकार की अशुभ भावनाओं में से किसी 1. दे०-रत्नक०५८ टीका तथा त०वृ०७.३७ 2. कन्दप्पमामिओगं किबिसियं मोहमासुरत्तं च। एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होन्ति।। उ० 36.256 3. विस्तार के लिए दे०-उ० 36.263-67 -