Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 275
________________ 239 साधु परमेष्ठी हुए यह सोचना-'आज भिक्षा नहीं मिली, संभवतः कल मिल जाएगी', यह अलाभपरीषहजय है। 16. रोगपरीषहजय : शरीर में किसी प्रकार के रोग आदि के हो जाने पर 'कर्मो' के उदय से ही रोग उत्पन्न होता है। ऐसार जानकर दीनता प्रकट न करते हुए तथा औषधि का भी सेवन न करके रोगजन्य कष्ट को समतापूर्वक सहन करना रोगपरीषहजय है। 17. तृणस्पर्शपरीषहजय : तृण पर सोने से अचेल साधु के शरीर को कष्ट होता है। गर्मी पड़ने से घास पर सोते हुए बहुत वेदना होती है। ऐसी अवस्था में भी वस्त्र आदि की अभिलाषा न करना तृणस्पर्शपरीषहजय है।' 18. जल्लपरीषहजय : ग्रीष्म ऋतु में मैल, रज अथवा परिताप से शरीर के क्लिन्न हो जाने पर उत्पन्न वेदना को समतापूर्वक सहन करना और स्नान आदि की इच्छा न करना जल्लपरीषहजय हैं।' 19. सत्कारपुरस्कारपरीषहजय : राजा आदि के द्वारा अभिवादन, सत्कार एवं निमन्त्रण आदि से किसी अन्य साधु का सम्मान होते देखकर तथा स्वयं का सम्मान न होने पर ईर्ष्या न करते हुए समभाव रखना सत्कार-पुरस्कार-परीषहजय है। 20. प्रज्ञापरीषहजय : . साधु को ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी यदि वह किसी के पूछने पर कुछ भी उत्तर न दे सके तो 'यह मेरे कर्मों का फल है' ऐसा विचार करके उसका आश्वस्त हो जाना, प्रज्ञापरीषहजय हैं। 21. अज्ञानपरीषहजय : साधु के सकल शास्त्रों में निपुण होने पर भी दूसरे व्यक्तियों के द्वारा किए गए 'यह मूर्ख है' इत्यादि आक्षेपों को शान्त भाव से सहन कर लेना अज्ञानपरीषहजय हैं। 1. उ०.२.३०-३१ 2. वही. 2.32-33 3. वही. 2.34-35 4. वही, 2.36-37 5. अभिवायणमभुट्ठाणं सामी कुज्जा निमन्तणं। जे ताइ पडिसेवन्ति न तेसिं पीहए मुणी।।वही, 2.38 तथा दे० 2.36 6. उ०२.४०-४२ 7. दे०-त०३० 6.6. पृ० 265

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