Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 273
________________ साधु परमेष्ठी 237 4- उष्णपरीषहजय : गर्मी से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी स्नान करना, मुख को पानी से सींचना, पंखा झलना आदि परिताप-निवारक उपायों के द्वारा शान्ति-प्राप्ति की इच्छा न करना उष्णपरीषहजय है।' 5- दंशमशकपरीषहजय : दंस तथा मच्छर आदि के द्वारा काटे जाने पर भी युद्ध के मोर्चे पर आगे रहने वाले हाथी की तरह अडिग रहकर, उन मांस खाने वाले तथा रक्तपीने वाले जीवों को द्वेषभाव से न तो हटाना और न ही मारना दंशमशकपरीषहजय है। 6- अचेलपरीषहजय : वस्त्रफट गए हों,अत्यन्तजीर्ण-शीर्ण हो गए हों,यावस्त्रों को चोर-डाकू आदि ने चुरा लिया हो तो दीनतापूर्वक वस्त्रों की याचना न करना, 'नवीन वस्त्र मिलेंगे इससे हर्ष और अब मुझे कोन वस्त्र देगा' इस विचार से शोक न करना, बल्कि वस्त्ररहित या अल्पवस्त्रसहित होने की स्थिति को समभाव से सहन करना, यह अचेलपरीषहजय है।' 7- अरतिपरीषहजय : ग्रामानुग्राम में विचरण करते हुए अनेक प्रकार की कठिनाइयां आने के कारण साधु को साधुवृत्ति के प्रति अरुचि उत्पन्न हो सकती है। अतः इस अरुचि को उत्पन्न न होने देना तथा संयम का पालन करते रहना अरतिपरीषहजय है। 8. स्त्रीपरीषहजय : पुरुष या स्त्रीसाधक का अपनी साधना में विजातीय के प्रति कामवासना का आकर्षण पैदा होने पर उसकी ओर न ललचाना, मन को दृढ़ रखना तथा संयमरूपी उद्यान में रमण करते रहना ही स्त्रीपरीषहजय है। 9. चर्यापरीषहजय : यहां चर्या से अभिप्राय है--गमन करना / एक जगह स्थायीरूप से निवास करने से साधु को ममत्व के बन्धन में पड़ जाने की आशंका रहती है। अतः किसी गृहस्थ अथवा गृह आदि में आसक्ति न रखते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते समय उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना, चर्यापरीषहजय कहलाता है। 1. उ०२.८-६ 2. वही, 2.10-11 3. वही, 2.12-13 4. वही, 2.14-15 5. उ० 2.16-17 6. वही, 2.18-16

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