________________ 236 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 3- परीषहजय 4- सल्लेखना इनमें से तप एवं साधु की प्रतिमाओं का वर्णन तो पूर्व में किया ही जा चुका है। यहां परीषहजय और सल्लेखना का अध्ययन किया जाता है। (अ) परीषहजय: अङ्गीकृत धर्ममार्ग में स्थिर रहने एवं कर्मों के क्षय के लिए जो सहन करने योग्य हों वे पीरषह कहलाते हैं। क्षुधा-तृषा आदि उन परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेना अर्थात् खेद खिन्न न होकर उन्हें शान्तभाव से सहन कर लेना ही परीषहजय है। परीषह संख्या में बाईस प्रकार के स्वीकार किए गए हैं। अतः परीषहजय भी बाईस प्रकार का ही है1- क्षुधापरीषहजय : बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त होकर क्षुधा की शान्ति के लिए न तो फल आदि को स्वयं तोड़ना, न दूसरे से तुड़वाना, ना पकाना और न पकवाना अपितु भूख से उत्पन्न कष्ट को सब प्रकार से सहन करना ही क्षुधापरीषहजय है। 2- तृषापरीषहजय : __ प्यास से पीड़ित होने पर, यहां तक कि एकान्त निर्जन स्थान में मुख के सूख जाने पर भी साधु अदीनभाव से प्यास के कष्ट को सहता हुआ, सचित्त जल का सेवन न करके अचित्त जल की प्राप्ति के लिए ही प्रयास करता है वह तृषापरीषहजय है। 3- शीतपरीषहजय : ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यदि शीतजन्य कष्ट होने लगे तो शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए कोई स्थान एवं वस्त्र आदि के न रहने पर भी अग्नि आदि के सेवन का चिन्तन न करते हुए उससे होने वाले कष्ट को सहन करना शीतपरीषहजय है। 1. मार्गाऽच्यवननिर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः। त०सू० 6.8 2. क्षुघातृषादिवेदनासमुत्पत्तौ उपार्जिकर्मनिर्जरणार्थं परिसमन्तात् सहनं परीषहः तस्य जयः परीषहजयः / त०१० 6.2, पृ० 282 3. इमे खलु ते बावीसं परीसहा--दंसण-परीसहे। उ०२.३. (गद्य) तथा मिलाइये-समवाओ, 22.1 4. दे०-उ० 2.2-3 5. सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे। वही, 2.4. तथा दे० 2.5 6. उ०२.६-७