________________ 238 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 10. निषद्यापरीषहजय : जब साधु श्मशान, वन अथवा पर्वतों की गुफा आदि में निवास करता है और नियतकालपर्यन्त ध्यान के लिए निषद्य (आसन) को स्वीकार करता है, तब देव, तिर्यच, मनुष्य और अचेतन पदार्थकृत उपसर्ग (आपत्ति) उत्पन्न हो सकते हैं। उन उपसर्गों के कारण अपने आसन से न हिलना और न मन्त्र आदि के द्वारा किसी प्रकार का प्रतीकार ही करना, निषद्यापरीषहजय कहलाता है।' 11. शय्यापरीषहजय : शय्या का अर्थ है-शयन करने का स्थान / साधु को कहीं एक रात रहना पड़े या अधिक दिनों तक | वहां प्रिय या अप्रिय स्थान मिलने पर हर्ष शोक न करना अथवा कोमल-कठोर, ऊंची-नीची जैसे भी जबह मिले वहां समभाव से रहना, शय्या परीषहजय है। 12. आक्रोशपरीषहजय : किसी ग्राम या नगर में पहुचने पर साधु की क्रिया, वेषभूषा आदि को देखकर द्वेषवश या ईषर्यावश कोई अनभिज्ञ व्यक्ति आवेश में आकर उसे कठोर या अप्रिय वचन कहे तो उन वचनों को सुनकर चुप रहना तथा उसके प्रति थोड़ा-सा भी क्रोध न करना, आक्रोशपरीशहजय है।' 13. वधपरीषहजय : आवेश में आकर कोई व्यक्ति साधु को मारे-पीटे तब यह सोंचकर कि इस आत्मा का कभी विनाश नहीं होता तथा क्षमा ही सबसे बड़ा धर्म है, मारने वाले के प्रति मन से भी द्वेष न करते हुए धर्म का ही चिन्तन करना वधपरीषहजय 14 याचनापरीषहजय : साधु के पास जितनी भी वस्तुएं होती हैं वे सब गृहस्थ से मांगी हुई ही होती हैं, बिना मांगा कुछ भी नही होता किन्तु 'गृहस्थों के सामने प्रतिदिन हाथ फैलानाअच्छा नही है, अतः गृहवास ही श्रेष्ठ है' इस प्रकार याचनाजन्य दीनता के भाव न आने देना याचनापरीषहजय है / / 15. अलाभपरीषहजय : साधु कोआहारआदि की याचना करने पर कभी-कभी उसकी बिल्कुल ही प्राप्ति नहीं होती तथा कभी थोड़ा मिलता है। ऐसी अवस्था में दुःखी न होते 1. दे०-त०वृ० ६.६.पृ०२६३ 2. उ०२.२२-२३ 35 अक्कोसेज्ज परो भिक्खू न तेसिं पडिसंजले। वही, 2.24 तथा दे०, 2.25 4. हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। वही, 2.26, तथा दे०-२.२७ 5. वही, 2.28-26