________________ साधु परमेष्ठी 225 भिक्षाचर्या कहा जाता है / भिक्षाचर्या साधु की दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि बिना भिक्षा के उसे कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो पाती। इसीलिए तीर्थंकर भगवान् ने कहा है कि साधु की सभी वस्तुएं याचित होती हैं, अयाचित कुछ भी नहीं होता। अतः जैनदर्शन में साधु की भिक्षाचर्या की भी एक सुन्दर विधि उपलब्ध होती है। भिक्षा के लिए कब जाए? सबसे पहले विचारणीय विषय है कि साधु भिक्षा के लिए कब जाए? इसका स्पष्ट समाधान करते हुए कहा गया है कि जब भिक्षा का समय हो क्योंकि समय का अतिक्रमण करके भिक्षा के लिए जाने वाला भिक्षु निन्दा, तिरस्कार तथा अविश्वास का पात्र बन सकता है। कैसे चले? भिक्षार्थजाता हुआ मुनि असम्भ्रान्त रहे / भिक्षाकाल में बहुत से भिक्षाचर भिक्षार्थ जाते हैं / मन में ऐसा भाव हो सकता है कि उनके भिक्षा लेने के पश्चात् मुझे क्या मिलेगा? मन की ऐसी दशा से भिक्षा के लिए जाते हुए शीघ्रता करना सम्भ्रान्तवृत्ति है / ऐसी दशा में भिक्षु शीघ्रता करता हुआ ईर्यासमिति का पालन नहीं कर पाता। 1. गोचराग्र के लिए निकला हुआ व्यक्ति धीमे-धीमें चले, उद्वेगरहित होकर अर्थात् भिक्षा न मिलने अथवा मनोनुकूल भिक्षा न मिलने की आशंका सें व्याकुल होता हुआ तथा तिरस्कार आदि से क्षुब्ध न होता हुआ गमन करे / इसके साथ-साथअव्याक्षिप्त चित्त से चले,उसकी चित्तवृत्तिशब्द आदि विषयों में आसक्त न हो तथा पैर आदि उठाते समय वह पूरा उपयोग रखता हुआ चले। 2. साधु आगे युग-प्रमाण (चार हाथ) भूमि को देखता हुआ और बीज, हरियाली, प्राणी, जल तथा सजीव मिट्टी को टालता हुआ चले। इससे सचित वस्तु के स्पर्श का दोष टल जाता है। 3. दूसरे मार्ग के होते हुए गड्ढे, ऊबड़-खाबड़ भूभाग, कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल और पंकिल मार्ग को टाले / संक्रम अर्थात् जल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ या पाषाण रचित पुल के ऊपर से न जाए। वहां गिरने या लड़खड़ाने से जीव हिंसा हो सकती है। यदि उसके अतिरिक्त 1. सव्वं से जाइयं होई नत्थि किंचि अजाइयं / उ० 2.28 2. संपत्त भिक्खकालम्मि। दश०५११ 3. असंभंतो अमुच्छिओ। वहीं 4. वही, 5.12 5. दश०५.१५३