Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 259
________________ 223 साधु परमेष्ठी हुआ न होना चाहिए। साधुसदैव सामुदायिक भिक्षा करे अर्थात् निम्न परिवारों के घरों को छोड़कर उच्च घरानों में न जाए। 2. परकृत भोजन : जिस भोजन को गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया हो, साधु उसी में से भोजन ग्रहण करे। जो भोजन साधु के निमित से बनाया गया हो, उसे वह न ले। इस प्रकार के भोजन को ग्रहण करने से भोजन बनाते समय होने वाली जीव-हिंसा इत्यादि का दोष साधु पर भी लगता है। 3. अवशिष्ट भोजन : गृहस्थ के भोजन कर चुकने के बाद जो शेष बचा हुआ आहार है उसी में से साधु को ग्रहण करना चाहिए। ऐसा करने से गृहस्थ भूखा भी नहीं रहता और उसे पुन: भोजन भी नही पकाना पड़ता। 4. अक्रीत भोजन (अनैमित्तिक) साधु वही भोजन ले जो गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया है। साधु के निमित्त से खरीद कर लाया गया भोजन न ले। कारण कि साधु के लिए अतिरिक्त व्यय करने से गृहस्थ का मन दुःखी हो सकता है। 5. अनिमन्त्रित भोजन : साधु गृहस्थ के द्वाराआमन्त्रित किए जाने पर भिक्षा न लेवे क्योंकि इस प्रकार आहार लेने पर पाचन क्रिया के समय होने वाली हिंसा का दोष साधु को भी लगेगा / साधु को सहज भाव से बिना निमन्त्रण के किसी भी घर से भिक्षा लेनी चाहिए। 6. नीरस तथा परिमित भोजन : साधु को मात्र संयम पालन के लिए ही भोजन ग्रहण करने का विधान है, रसनेन्द्रिय की सन्तुष्टि के लिए नहीं। अतः साधु को सरसआहार की प्राप्ति के लिएअधिक नहीं धूमना चाहिए। उसे जोनीरसआहार मिले उसका तिरस्कार समुयाणं उंछमेसिज्जाजहासुत्तमणिन्दियं / लाभालाभम्मि संतुढे पिण्डवायं चरे मुणी।। उ० 35716 2. समुयाणं चरे भिक्खू कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म ऊसद नाभिधारए।। दश०५.२.२५ 3. फासुयं परकडं पिण्डं पडिगाहेज्ज संजए।। उ० 1534 4. सेसावसेसं लभऊ तवस्सी / वही, 12.10 5. उद्देसियं कीयकडं नियागं न मुंचई किंचिअणेसणिज्ज। अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कट्टु पाबं / / उ०२०.४७ 6. वही, तथा दे०-दश० 3.2

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