________________ 222 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 1. भयंकर रोग हो जाने पर : किसी असाध्य रोग के हो जाने पर आहार त्याग देना चाहिए / साधु को तो रोग आदि की शान्ति के लिए औषधि-सेवन का भी निषेध है तब भला फिर ऐसी अवस्था में आहार ग्रहण करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है। 2. आकस्मिक संकट (उपसर्ग) के आ जाने पर : आकस्मिक किसी देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और अचेतनकृत उपसर्ग के उपस्थित होने पर साधु को सब प्रकार के आहार का त्याग कर देना चाहिए। 3. ब्रह्मचर्यव्रत रक्षार्थ : यदि इन्द्रियां भोजन से प्रदीप्त होकर काम-भाव की ओर उन्मुख होती हैं तो तब तक के लिए भोजन का त्याग कर देना चाहिए जब तक कि इन्द्रियां संयमित न हो जाएं / आत्मसंयम के बिना ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। 4. जीव रक्षार्थ : यदि भोजन ग्रहण करने से अहिंसा व्रत में बाधा आती है तो भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए / वर्षाकाल में कई बार इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, उस समय भोजन नहीं लेना चाहिए। 5. तप करने के लिए: बारह तपों में अनशन एक तप है / उस तप के लिए भोजन का त्याग आवश्यक है / तप से कर्मों की निर्जरा होती है | अतः तप करना भी अनिवार्य है। 6. समतापूर्वक जीवन त्यागार्थः ___ वृद्धावस्था में इन्द्रियों के विफल होने पर अथवा मृत्यु के सन्निकट आने पर निर्ममत्व अवस्था की प्राप्ति के लिए सब प्रकार के आहार को त्याग देना चाहिए। (इ) साधु का एषणीय आहार : भोजन ग्रहण करने के अनुकूल कारणों के रहते हुए भी साधु के लिए सभी प्रकार के भोजन लेने का विधान नहीं है। साधु के द्वारा लेने योग्य भोजन के विषय में निम्न संकेत उपलब्ध होते हैं1. बहुगृहग्रहीत भोजन : साधु को भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न को ही सेवन करने का विधान है। वह भिक्षान्न भी किसी एक घर से अथवा अपने सम्बन्धीजनों के घर से ही लाया 1. दे०-उ० 1578, 16.75